तुम्हारे साथ थोड़ा और मनुष्य हुआ मैं

तुम्हारे साथ
तुम्हारा शहर
अपना-सा लगा

तुम्हारे साथ
मैंने जाना—
कि शहर को जानना हो तो
शहर में बहती नदी को जानना चाहिए
नदी की रेत में शहर की आदिम कथाएँ दबी होती हैं।

तुम्हारे साथ
मैंने समझा—
कि श्मशान वह जगह है जहाँ सिर्फ़ देह नहीं जलती
आग की लपट और दुर्गंध की सानी में
भविष्य की कई योजनाएँ भी राख हो जाती हैं।

मैंने समझा—
कि अच्छी सड़कें भ्रम पैदा करती हैं
अन्न नहीं
अच्छी सड़कों के सहारे पहुँचा जा सकता है
बहुत दूर, बहुत जल्दी
मगर अच्छी सड़कों के सहारे जीवन नहीं सुधरता
बहुत दूर, बहुत जल्दी।

मैंने समझा—
कि जीवन में अपरिहार्य जैसा कुछ भी नहीं होता
यह मनुष्य है
जो अपनी प्राथमिकताएँ तय करता है
लाभ देखता है
सीढ़ियाँ चढ़ता है
और बिसरते जाता है पुराना सब-कुछ।

तुम्हारे साथ
मैंने तुम्हें जाना
तुम्हारे साथ
मैंने समझा ख़ुद को भी
तुम्हारे साथ
थोड़ा और मनुष्य हुआ मैं
तुम्हारे साथ
हुआ थोड़ा और ज़िम्मेदार।

डूबने के लिए नदी नहीं चाहिए

मैं, जो कभी तैरना नहीं सीख पाया
जानता हूँ डूबने का डर
इसलिए कभी नाव ली
कभी पुल का लिया सहारा
और इस तरह पार करता रहा
कई नदियाँ
कई शहर
लेकिन अंततः डूब गया जीवन के मरुस्थल में
जहाँ कोई नदी नहीं थी
जहाँ कोई दरख़्त नहीं था

डूबने के लिए नदी नहीं चाहिए
आदमी डूब सकता है
संसार में
कहीं भी, कभी भी
अगर वह तैरना नहीं जानता।

गौरव भारती की अन्य कविताएँ

Recommended Book:

Previous articleसीनियर सिटिज़न उर्फ़ सिक्सटी प्लसजी
Next articleरुक गया आँख से बहता हुआ दरिया कैसे
गौरव भारती
जन्म- बेगूसराय, बिहार | शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली | इन्द्रप्रस्थ भारती, मुक्तांचल, कविता बिहान, वागर्थ, परिकथा, आजकल, नया ज्ञानोदय, सदानीरा,समहुत, विभोम स्वर, कथानक आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित | ईमेल- [email protected] संपर्क- 9015326408

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here