वरिष्ठ ताइवानी कवि एवं आलोचक ली मिन-युंग की कविताओं के हिन्दी अनुवाद का संकलन ‘हक़ीक़त के बीच दरार’ जुलाई में पाठकों तक पहुँचा। साहित्यिक संस्कृति की इस साझेदारी के अनुभव ली मिन-युंग इस लेख के माध्यम से व्यक्त कर रहे हैं।

कविता सरहदों के पार, हक़ीक़त के बीच दरार और कुछ बेतरतीब विचार

~ ली मिन युंग

कुछ अरसा पहले, मुझे एक भारतीय युवा कवि का ईमेल मिला जिसमें कहा गया था कि वह मेरी कविताओं का हिन्दी में अनुवाद कर उन्हें किसी भारतीय पत्रिका में प्रकाशित करना चाहता है। तब से मैं देवेश के सम्पर्क में हूँ। वह एक खगोलशास्त्री है और चिंग हुआ विश्वविद्यालय के खगोल विज्ञान संस्थान में अतिथि शोधकर्ता है। उसका जन्म 1986 में हुआ था। मैंने इंटरनेट पर उसकी तस्वीरें देखी हैं। महामारी के दौरान हमारे बीच ईमेल का आदान-प्रदान होता रहा। मेरी कुछ कविताएँ जिनका अंग्रेज़ी अनुवाद मेरे पास उपलब्ध था, देवेश के माध्यम से वे धीरे-धीरे हिन्दी में अनूदित होती गईं, और भारत में प्रकाशित हुईं।

मेरे रचनाकर्म के अंग्रेज़ी अनुवाद कार्य बहुत अधिक नहीं हैं, लगभग साठ कविताएँ होंगी और मैंने उन्हें बहुत व्यवस्थित ढंग से नहीं रखा था। कुछ अंग्रेज़ी निबंध और समीक्षाएँ पत्र-पत्रिकाओं में बेतरतीब बिखरे हुए हैं, कई का अब अता-पता नहीं। मेरे पास विश्व कविताओं के अंग्रेज़ी अनुवाद के दस से कुछ अधिक संकलन हैं, जो यूँ देखा जाए तो बहुत नहीं हैं। मैं मानता हूँ कि अनुवाद पढ़ना मुझे दुनिया-भर के कवियों से सीखने का अवसर देता है।

एक वक़्त तक मुझे अपनी कविताओं का अनुवाद करवाना बेमतलब लगता था। यदि अपने ही देश में आप जनमानस तक कविता नहीं पहुँचा पा रहे, तो विदेशी पाठकों तक कैसे पहुँचा पाएँगे? मैं कुछ लोगों को जानता हूँ जिनकी कविताओं का अनुवाद विदेशी भाषाओं में हुआ, पर मैं कभी अनुवाद के सुझाव पर गम्भीर नहीं हुआ करता था। अलबत्ता, मुझे यह भी लगता है कि ताइवान को दुनिया जाने और यहाँ की कविता को भी। फिर भी किसी भाषा की कविता का उसके स्थानीय लोगों तक पहुँचना अब भी मेरे लिए सर्वोपरि है।

बहरहाल, देवेश इस मनोस्थिति से बेख़बर था। उसने मेरी कविताओं का हिन्दी अनुवाद करने और उन्हें भारत में प्रकाशित करने की पहल की। मेरी कविताओं की भूमिका दो भारतीय कवियों ने लिखी। मेरे लिए यह एक सुखद अनुभव था। क़रीब एक साल तक हमारे बीच ईमेल का आदान-प्रदान चलता रहा। हिन्दी और अंग्रेज़ी में कविता लेखन के अतिरिक्त देवेश अनुवाद कार्य और कथेतर गद्य लेखन भी करते हैं। मैंने उनकी कविताओं का अंग्रेज़ी से मैंड्रिन में अनुवाद किया और वे अनुवाद ताइवान के अख़बारों में प्रकाशित भी हुए।

मार्च में, मैंने देवेश की कविता ‘ताइवान’ का अनुवाद किया जो ‘यूनाइटेड सप्लीमेंट’ में प्रकाशित हुआ। कविता की पोस्टस्क्रिप्ट में, मैंने देवेश की ताइवान के लिए संवेदना का उल्लेख भी किया है। इस कविता की पक्तियाँ हैं—

“…जाओ, सहो थपेड़े
भूकम्प और समुद्री तूफ़ान
पर रहो अडिग

पानी में, पानी से लड़ाई करता
शकरकंद जैसे मानचित्र वाला यह देश
फिर भी रखता है मिठास
इतने सारे खारेपन के बावजूद!”

एक प्रवासी कवि का ताइवान के बारे में लिखते समय शकरकंद का उल्लेख करना वैसी ही मीठी अनुभूति देता है, जैसी मिठास स्थानीय कवियों झेंग जियोंगमिंग या वू शेंग के यहाँ मिलती है। मुझे लगता है कि ताइवान के पाठकों को देवेश की कविताएँ पढ़कर अभिभूत होना चाहिए। एक विदेशी कवि जो ताइवान के एक विश्वविद्यालय में पोस्ट-डॉक्टरेट शोधकर्ता के रूप में काम करता है, उसे अपनी कविता में ताइवान से इस तरह रूबरू होने के लिए बधाई दी जानी चाहिए। ‌

कोविड-19 की स्थितियों के दौरान हालाँकि ताइवान अन्य देशों के बरअक्स सुरक्षित रहा, फिर भी एक आपात स्थिति तो बनी ही रही है। भारत में महामारी की स्थिति और भी विकट है। देवेश की चिंता उसके द्वारा मुझे भेजी गई कविताओं में प्रकट होती है। ‘महामृत्यु में अनुनाद’ देवेश की एक लम्बी कविता है। वहीं उसकी एक और कविता ‘उसकी आँखें खुली रहनी चाहिए थीं’ कोविड-19 से गुज़र गई एक अजनबी स्त्री की स्मृति को समर्पित है। मैंने इन कविताओं का मैंड्रिन में अनुवाद किया है और वे क्रमशः ‘लिबर्टी टाइम्स’ और ‘लिटरेरी ताइवान’ में प्रकाशित हुई हैं।

महामारी के दौरान मेरी कविताओं की पुस्तक के हिन्दी अनुवाद का काम चलता रहा। यह किताब जुलाई महीने में भारत के गुलाबी शहर जयपुर स्थित ‘कलमकार मंच’ से प्रकाशित हुई। इस तरह कविताओं के माध्यम से भारत और ताइवान के मध्य साहित्यिक सामग्री साझा हुई। यह मुझे साल 2000 में मेरी भारत यात्रा की याद दिलाता है। लगभग दो सप्ताह तक मैं और ताइवान के कुछ अन्य कवि नई दिल्ली, कोलकाता, आगरा, मुम्बई सहित अन्य भारतीय शहरों में घूमते रहे। वहाँ भारतीय कवियों के साथ हमारी कुछ मुलाक़ातें हुईं। बाद में‌ कुछ भारतीय कवियों ने ‘काऊशोंग महासागर अंतर्राष्ट्रीय कविता महोत्सव’ में शिरकत की। दो कवियों ली कुइज़ियन और झेंग जिओंगमिंग ने क्रमशः ताइवान के कवियों की भारत यात्रा और भारतीय कवियों की ताइवान यात्रा में भूमिकाएँ निभायीं।

भारतीय कवि टैगोर ने 1913 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार जीता। भारत, जो कभी ब्रिटिश साम्राज्य का उपनिवेश था, के पास अपनी कलात्मक विरासत है और औपनिवेशिक काल के दौरान यूरोपीय संस्कृति का प्रभाव भी वहाँ पड़ा है। भारत में कविता का माहौल बहुत समृद्ध है। यहाँ तक कि वहाँ राजनेताओं में भी साहित्यिक अभिरुचि देखी गई है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम वैज्ञानिक और लेखक रहे। अंग्रेज़ी भारत की आधिकारिक भाषा भी है और कविताओं के अंग्रेज़ी अनुवाद या अंग्रेज़ी से कविताओं के अनुवाद वहाँ सहज सम्भव हैं। इस तरह विश्व एवं स्थानीय कविताओं के प्रसार की सुविधा है। भारत में हिन्दी एक महत्त्वपूर्ण भाषा है। देवेश निजी लेखन के साथ-साथ अंग्रेज़ी और हिन्दी भाषाओं के बीच अनुवादक की भूमिका निभा रहे हैं।

उनकी कविता ‘महामृत्यु में अनुनाद’ महामारी के दुःस्वप्न का वर्णन करती है, और कवि यहाँ एक बिरादरी के तौर पर कविता में शामिल हैं—

“…कोई नहीं याद रखता
कि उनमें से कितने कलाकार थे, कितने चित्रकार, कितने कवि
कौन-सी अगली कविता लिखना या अगला चित्र बनाना चाहते थे वे

हममें से अधिकांश कवि गुमनाम मरेंगे
और यदि जी पायी हमारी कोई कविता, कोई पंक्ति
भविष्य में उसे उद्धृत करते हुए कोई इतना भर कहेगा—
‘किसी कवि ने कहा था’

‘किसी कवि’ में समाहित सभी कवियों
आओ, खड़े होते हैं…
…और बारी-बारी गाते हैं
प्लेग और अकाल आदि में मर गए
पुरखों के स्मृति गीत
सुनाते हैं अपनी कविताएँ

उसके बाद
उम्मीद भरी समवेत हँसी हँसते हैं

ठहाकों का अनुनाद
एक कालजयी कविता है…”

कविता आख़िरकार कविता है और देवेश की अपनी मान्यताएँ हैं। उसने महामारी की आपदा में कवियों की भूमिका को जोड़ा, जिसने अवलोकन और ध्यान के अर्थ को मज़बूत किया। ‘उसकी आँखें खुली रहनी चाहिए थीं’ एक कविता शृंखला है। ये कविताएँ कोविड से गुज़र गई एक अजनबी स्त्री की फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल पर उपलब्ध तस्वीरों को देखकर लिखी गई हैं। फ़ेसबुक तस्वीरों के माध्यम से कवि, स्त्री के जीवन में 2012 से 2021 तक लगभग 10 वर्षों का सफ़र बयान करता है। स्त्री की मृत्यु उसकी शादी की सालगिरह वाले दिन होती है। जीवन बीमारी से ख़त्म हो रहा है, और कवि आपदा की स्थिति में अपने देश की त्रासदी को दर्ज कर रहा है। भाषा की बाधाओं पर क़ाबू पाने वाली कविता विभिन्न देशों में पढ़ी जाती है। कोविड-19 की उग्रता के दौरान कविता एक प्रकाश है। वह दुःस्वप्न की छाया को दूर भगाती है। कविता लोगों के दिलों को सुख और सुकून देने वाली शै है।

मेरे हिन्दी कविता संकलन का शीर्षक ‘हक़ीक़त के बीच दरार’ है। इस शीर्षक का चयन अनुवादक ने किया है। अनूदित कविताओं के इस संग्रह में मेरे सभी कविता संग्रहों से कविताएँ ली गई हैं। देवेश ने पुस्तक के शीर्षक में ‘हक़ीक़त’ और ‘दरार’ को जोड़ा और इससे आप उसके इरादों की कल्पना कर सकते हैं। वह मूल कवि की भावनाओं और विचारों के परिप्रेक्ष्य को महसूस कर पा रहा है।‌ वह मेरी कविताओं के शिल्प को समझता है—

“रात गहराने के बाद
हक़ीक़त के बीच थी एक दरार
जिससे होकर मैं बच निकला

तुम नहीं जकड़ सके
मेरे हाथ में खिंची
प्यार की लकीर को
तुम नहीं पकड़ सके
मेरे क़दमों से छूटे
नफ़रत के निशानों को…”

भारत में मेरी कुछ कविताओं ने हिन्दी पाठकों के दिलों को छुआ। ये कविताएँ दक्षिण-पश्चिमी प्रशांत महासागर में एक उभरते हुए देश के कवि के हृदयोद्गार हैं। एक देश जो एक विशेष ऐतिहासिक संरचना से आत्म-व्यक्तित्व स्थापित करने और सामान्यीकरण की दिशा में प्रयासरत है। समुद्री युग के दौरान पुर्तगाली नाविकों ने ‘फ़ॉरमोसा’ सम्बोधन द्वारा इस द्वीप की प्रशंसा की। वर्तमान में हम ‘ताइवान’ के साथ दुनिया को एक संकेत भेज रहे हैं। जैसा कि मेरी कविता ‘शताब्दियों के मिलन बिंदु पर प्रार्थना’ में उल्लेखित है—

“…उगते हुए सूरज की रोशनी
क्षितिज पर चमकती है
सपने बुनता फ़ॉरमोसा
समुद्र के आलिंगन में रहता है
क्षितिज के ऊपर
उसके वासी, एक सुर में पुकारते हैं
ताइवान।”

हम ताइवानी कवियों के लिए कविता एक सांकेतिक ध्वज है। हम भाषा के माध्यम से तस्वीर बनाते हैं। पत्ते हमारा झण्डा हैं, फूल हमारे राष्ट्रीय प्रतीक हैं, और पक्षियों की आवाज़ हमारा राष्ट्रगान है। ताइवान, हमारा देश हमारे सपनों में, हमारे दिलों में है।

~ ली मिन युंग

अनुवाद: देवेश पथ सारिया

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‘हक़ीक़त के बीच दरार’ यहाँ से ख़रीदें:

देवेश पथ सारिया
हिन्दी कवि-लेखक एवं अनुवादक। पुरस्कार : भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार (2023) प्रकाशित पुस्तकें— कविता संग्रह : नूह की नाव । कथेतर गद्य : छोटी आँखों की पुतलियों में (ताइवान डायरी)। अनुवाद : हक़ीक़त के बीच दरार; यातना शिविर में साथिनें।