मेरी आग बरसाती आँखें
कसती भिंचभिंचाती मुठ्ठियाँ
कँपकँपाते-फरफराते होंठ
थरथराता-क्रोधित शरीर
जवाब दे बैठता है,
जब खण्डहरों में चीख़ते हैं
मासूम आहत परिन्दे

सियासियों, सत्ताधारियों की
इमारतों में क़ैद
बिलखती-तड़पती हैं
भुखमरी, बेचारगी, लाचारी की
चादर ओढ़े
मेहनतकशों की देह

मेरी अपनी ही आँखों में
गुम हो जाते हैं
अपनी पलकों पर सजे
बेकसूर रंगीन सपने
और मुझे गान्धारी बना दिया जाता है

चारों ओर की चीख़ें-चिल्लाहटें
मेरे कानों की परतों को
फाड़ रही हैं फिर भी मैं बहरी हूँ

गिद्ध और बाज से शैतान
व्यस्त हैं
इन्सानियत को नोंचने-कुतरने में,
फिर भी मैं गूँगी हूँ
बोल नहीं सकती

सम्पूर्ण विकलांगता ही
मेरे जीने का कारण है

जिस दिन मेरी अपंगता
समाप्त हो जाएगी
मैं, मार दी जाऊँगी।

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