नीले आकाश में खिलते
तारे अनगिनत,
आसमान की सैर को तरसते वृक्ष।
झाड़ियों के झुरमुट में
छिपे घोंसले अनगिनत,
कभी चलते कभी रुकते क़दमों के नीचे
आती गीली मिट्टी
और कभी घास के हरे ग़लीचे नर्म।

कुछ दूर तलक चलकर
मिलने वाला वो गहरा कुँआ,
था उसी के पास बुजुर्ग-सा दिखने वाला बरगद
और हवाओं में झूलती जटाएँ उसकी,
जैसे कोई बूढ़ी नानी
झुलाती है गोद में अपने।
पास ही उपले पाथती
मिल जातीं थी
चूड़ी से भरी कलाइयाँ।
धान के खेतों में भरता
जल लबालब
और उसी ठण्डे पानी की तरंगों में
नाचते पाँव और झूमते मन
वो चहलक़दमी, वो छपाक,
उन छोटे बच्चों के,
जिनके लिए
धान की रोपाई भी लाती थी
त्योहार की मिठास।

बड़े पेड़ों की क़तारें
घने बाग़-बग़ीचों की छाँव
जहाँ नंगे पैरों ही
निकल पड़ते थे
लूटने इन अनमोल खजानों को।
क्या ये एक सपना था
या था मेरा बचपन
कि जिसमें खोया हुआ मन मेरा
ढूँढने पर भी मिल नहीं पाता।
अब तो हर तरफ़ बिछी है बस
धूप में जलती हुई सड़कें पत्थरों की,
जहाँ पहनकर जूते भी
पड़ जाते हैं
पैरों में छाले
और बन जाते हैं मन पर
चोट के निशान,
और छाँव भी तड़पती है छाँव के लिए।
कैसा वो मेरा बचपन था
या सपना था कोई सुनहरा
कि जिसमें गुम हुआ मन मेरा
वापस ही नहीं आना चाहता।

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अनुपमा मिश्रा
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