‘Mere Prem’, a poem by Harshita Panchariya
ब्रह्माण्ड में विचरते अनन्त तारे
भागे हुए वे प्रेमी हैं
जिन्हें पृथ्वी पर पनाह नहीं मिली।
सो रात होते ही प्रकाशित करते हैं प्रेम
ताकि पूरी दुनिया के सोने पर विस्तारित कर सकें
उस प्रेम के स्वप्न को
जो आँख खुलते हमेशा ही ओझल हो जाता है।
***
जागते ही मेरे भीतर उग आती हैं
कितनी ही खर-पतवार
जिनका बढ़ना मेरी उर्वरता का दोहन है
और फिर चाह कर भी बचा नहीं पाती
प्रेम कविताओं की फ़स्ल को…
***
मेरे लिए दुःख यह नहीं रहा
कि मैं सुख बचा नहीं पायी
मेरे लिए दुःख यह रहा
कि मैं सुख का भार उठा नहीं पायी।
***
अब तो मेरे गाल भी उठा नहीं पाते
नमकीन पानी का भार,
पर इतना पता है
जिस दिन मेरे अंदर का खारा झरना नदी बनेगा
मैं स्वतः तुम्हारी ओर मुड़ जाऊँगी
…..
…….
मेरे प्रेम।
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