उन लड़कियों ने जाना पिता को
एक अडिग आदेश-सा,
एक मुहर-भर रहे पिता
बेटियों के दस्तावेज़ों पर।

कहाँ जाना, क्या खाना, क्या पढ़ना, निर्धारित
कर, पिता ने निभायीं ज़िम्मेदारियाँ अपनी,
बहरे रहे पिता अपनी परियों की खिलखिलाहट से
गूँगी हो गयीं बेटियाँ, माँ पर उठे हाथ के एवज़ में।

चुन-चुनकर इकट्ठे किए कुछ स्नेह-क्षण,
जब साल भर की थी तो पापा ने
पटाखों के शोर में मुझे गले लगाया था,
तो दो साल की थी तो होली के हुड़दंग से मुझे बचाया था

जब इतराती हैं सखियाँ पिता के वात्सल्य से
होना चाहती हैं विभोर वो भी उस जुटाए हुए पिता से
सूखता है जब मन पिता के स्नेह अभाव से
निचोड़ लेती हैं थोड़े-से पिता अपने ख़यालों के

वो नहीं जानतीं कि पिता के गले लग कौन-सी ताक़त मिलती है!
वो नहीं समझती कि सर पर हाथ रख कौन-से आश्वासन होते हैं पिता के!
वो जानती हैं तो बस इतना कि मेरी ज़ुबान पिता के सम्मान को ठेस है…
वो हँसती हैं, मुस्कुराती हैं पर कभी नहीं कह पाती हैं, एक पिता के रहते हुए पिता का अभाव।

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