रात ने जब घड़ियों से वक़्त उठा लिया
घंटी की तेज़ आवाज़ ने सारे पर्दों का रंग उड़ा दिया
कमरे में चार आदमियों ने अपनी-अपनी साँसें लीं
साँसें मुख़्तलिफ़ रंगों में थीं

एक आदमी पुराने कैलन्डर पर निशान लगा रहा था
दूसरा नया कैलन्डर हाथ में मरोड़ रहा था
तीसरे का चेहरा चौथे आदमी के चेहरे पर लग गया था
आदमी तीन थे
ये तीन सम्तें चौकोर कमरे के ख़ाली कोने को
देख रही थीं
इन्ही तीन सम्तों को कल सारा शहर बनना था
वो तीनों
कमरे के तीनों कोनों में जा कर खड़े हो गए
और सोचने लगे
किस का कोना है जो ख़ाली रह गया है
अचानक पर्दा हिला
और एक परिंदा
इस कोने में आ कर बैठ गया
तीनों के मुँह से निकला
मासूम
उन्हें पता चला कि वो तीनों वक़्त की क़ैद में थे
तीनों ने आग जलाई
और बोले
आग जलने तक ये सम्तें हमारी रहेंगी
आग चौथे कोने में लगाई गई थी
ज़िंदगी के रुख़ बढ़ते जा रहे थे
सूरज ने चार किरनें कमरे के अंदर फेंकीं
उन्हों ने पाँच-पाँच गज़ का सुनहरी-पन अपने गिर्द लपेटा
सूरज की तीन बाँहें टूट गईं
उन्होंने अपनी एक-एक उँगली काटी
और बोले
“हम ने अपनी उँगलियों से ज़िंदगी का सुकूत तोड़ा”
परिंदा कमरे में रह गया!

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सारा शगुफ़्ता
(31 अक्टूबर 1954 - 4 जून 1984)सारा शगुफ़्ता पाकिस्तान की एक बनेज़ीर शायरा थीं। 1980 में जब वह पहली और आख़िरी बार भारत आयी थीं तो दिल्ली के अदबी हल्क़ों में उनकी आमद से काफ़ी हलचल मच गयी थी। वह आम औरतों की तरह की औरत नहीं थीं। दिल्ली के कॉफी हाउस मोहनसिंह प्लेस में मर्दों के बीच बैठकर वह विभिन्न विषयों पर बहस करती थीं। बात-बात पर क़हक़हे लगाती थीं। पर्दे की सख़्त मुख़ालिफ़त करती थीं और नारी स्वतन्त्रता के लिए आवाज़ बुलन्द करती थीं। यही नहीं वह आम शायरात की तरह शायरी भी नहीं करती थीं। ग़ज़लें लिखना और सुनना उन्हें बिल्कुल पसन्द न था। छन्द और लयवाली नज़्मों से भी उन्हें कोई लगाव नहीं था। वह उर्दू की पहली ‘ऐंग्री यंग पोएट्स’ थीं और ऐंगरनैस उनकी कविता की पहली और आख़िरी पहचान कही जा सकती है।

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