‘Pencil Ki Tarah Barti Gayin Gharelu Striyaan’, a poem by Vivek Chaturvedi
पेंसिल की तरह बरती गयीं घरेलू स्त्रियाँ
फेंकी गयीं खीझ और ऊब से…
मेज़ और सोच से गिरायी गयीं
गिर कर भी बची रह गयी उनकी नोक
पर भीतर भरोसे का सीसा टूट गया
उठा कर फिर-फिर चलाया गया उन्हें
वे छिलती रहीं बार-बार
उनकी अस्मिता बिखरती रही
घिस के क़द बौना होता गया
उन्हें घर से बाहर नहीं किया गया
वे ज़रूरत पर मिल जाने वाले
सामान की तरह रखी गयीं
रैक के धूल भरे कोनों में
सीलन भरे चौकों और पिछले कमरों में
उन्हें जगह मिली
बच्चे भी उन्हें अनसुना करते रहे…
पेन और पिता से कमतर देखा… जो दफ़्तर जाते थे
हमेशा ग़लत बतायी गयी उनकी लिखत… अनन्तिम रही…
जो मिटने को अभिशप्त थी
वे साथ रह रहीं नयी और पुरानी पेंसिलों
और स्त्रियों से झगड़ती रहीं
यही सुख था… जो उन्हें हासिल था
बरस-दर-बरस कम्पास बॉक्स और तंग घरों में
पुरुषों और पैनों के नीचे दबकर
चोटिल आत्मा लिए
अपनी देह से प्रेम लिखती रहीं
पर चूड़ीदार ढक्कनों में बन्द रहे पुरुष
उनकी तरलता स्याही की तरह
बस सूखे काग़ज़ों में दर्ज हुई
पेंसिल की तरह बरती गयीं घरेलू स्त्रियाँ।
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