Poems: Akhileshwar Pandey
पानी के पाँव में धूप की बेड़ियाँ
वह बानी से नहीं निगेहबानी से डरता है
भाषा और बोली तो जानता है
पर जान की पहचान नहीं उसे
सियासत और हिफ़ाज़त में फ़र्क़ भी नहीं समझता
कपड़े तो बिजूके भी पहनते हैं
पर जिसकी आँख का पानी मर जाए
वह ज़्यादा बेशर्म हो जाता है
जाओ परिंदों जाओ!
चले जाओ किसी सुरक्षित जगह
बचाओ अपने कोमल पंखों को
ठूँस लो कान में रूई
यहाँ गोलियों से ही नहीं
बोलियों से भी जान चली जाती है
प्रेम का भभूत लगाकर
भाव को भस्म कर देने वाले
जादूगरों से बचो
बचो उन ढोंगियों से
जो पानी के पाँव में धूप की बेड़ियाँ लगा रहे
गुब्बारों में हवा संरक्षित कर रहे
इन पाखण्डियों से बचो
ये तुम्हारा कलरव नहीं
आर्तनाद सुनना चाहते हैं
इनमें इंसानियत की प्रतिछाया नहीं
प्रेतछाया है
ये इतने काले हैं कि
इनकी परछाई गहरी अंधेरी रात में भी देखी जा सकती है
जाओ कि यहाँ कुछ भी अतिरिक्त नहीं
सिर्फ़ अतिरेक ही बचा है…!
लड़की क्या सोचती है
स्कूल जाती और घर लौटती हुई लड़की क्या सोचती है
मम्मी-पापा, दीदी-भइया, दादा-दादी, नाना-नानी
ललचाते आम, मीठे जामुन
लम्बी चोटी, नेल पॉलिश, लाल फ़्रॉक, पिंक सैंडिल के बारे में सोचती है
क्लास टीचर के ग़ुस्से से बचने के तरीक़े
अपनी लालची सहेलियों से छिपाकर टिफ़िन खाने
डोरेमॉन, छोटा भीम, छुटकी के बारे में सोचती है
वह अपने बारे में नहीं सोचती
इस बारे में कोई ‘और’ सोचता है
वह सोचता है उसके छोटे कपड़ों
और देह के बारे में
वह मिल सकने वाले मौक़ों के बारे में सोचता रहता है
लड़की कभी नहीं सोचती
डर के बारे में
बुरी नीयत के बारे में
ख़ुद के लड़की होने के बारे में!
प्रार्थना
मैं चीटियों के घर में रहता हूँ
मुसाफ़िर की तरह
उनके लाये चावल और चीनी पर पलता हूँ
प्रेम कहानियाँ डूब कर पढ़ता हूँ
एक मादा पक्षी से प्यार करता हूँ
तितली बन चूमता हूँ आसमान का माथा
पहाड़ पर बैठा बूढ़ा बाज़ हूँ
ग़ौर से देखता हूँ नदी को
बुझाता हूँ आँखों की प्यास
टहनी से विलग होते पत्ते की अंतहीन पीड़ा
मेरे भीतर देर तक प्रतिध्वनित होती है
शापग्रस्त पीठ पर पश्चाताप की गठरी की तरह
मैं इंतज़ार में हूँ
एक ऐसे यायावर की
जो बच्चों के लिए मुस्कान लेकर आएगा
एक ऐसे क्षण की
जब लोग प्रार्थना के बजाय
कविताओं को मंत्र की तरह पढ़ेंगे
और यह धरती पवित्र हो जाएगी
पहले की तरह
हमेशा-हमेशा के लिए!
साहित्य का स्थापना गीत
अंधेरी रात की प्रशंसा गीत गा रहे
कवियों का स्वर शोकगीत में बदल जाए
उससे पहले बता देना ज़रूरी है कि
कविता उँगलियों का स्पर्श-गीत है
हर हमेश मिलन में गान ही नहीं होता
विरह वेदना में भी फूटते विरल गीत
तब पहाड़ी झरने की तरह बजता है संगीत
हर नायिका के जूड़े में स्पंदन का कोरस नहीं होता
कुछ के पल्लू में करुणा की गाँठ भी होती है
कुछ जीवन-राग गाये नहीं जाते
कुछ लय तो होंठ पर थिरककर ही रह जाते हैं
लोकगायक गीत नहीं, लोक वेदना का अलाप लेता है
पृथ्वी की गोद में बैठे पेड़ की बातें सुनो तो पता चले
जीवन चेतना को संतृप्त और स्पंदित करती कविता
कुछ और नहीं
साहित्य का स्थापना-गीत है
हाल-ए-गाँव
कम पानी वाले पोखर की मछलियाँ
दुबरा गयी हैं
ऊसर पड़े खेतों की मेड़ें रो रही हैं
बेरोज़गार लड़कों का पाँव मुचक गया है
पुलिस बहाली में दौड़ते-दौड़ते
बुज़ुर्गों की उमर थम गयी है
अच्छे दिनों के इंतज़ार में
लाल रीबन की चोटी वाली लड़कियाँ
बेपरवाही में जवान हो रही हैं
दुकानों पर लेमनचूस की जगह
बिक रहे मैगी-कुरकुरे
बैल की जगह ट्रैक्टर ने ले ली है
गाछ की जगह खम्भा खड़ा है
ट्रेन की खिड़की से देख रहा हूँ
बग़ल वाली पटरी मुझसे दूर हो रही है!
चिनिया बादाम बेचता हुआ लड़का
उस कॉमिक्स बुक को ललचाई नज़र से देख रहा है
जिसे पढ़ते हुए सो गयी है मेरी बेटी
मोबाइल पर माँ कह रही है
‘अगिला बार ढेर दिन खातिर अईह…”
पढ़ना मुझे
हर्फ़-हर्फ़ पढ़ना
हौले-से पढ़ना
पढ़ना मुझे ऐसे
जैसे चिड़िया करती है प्रार्थना
पढ़ा जाता है जैसे प्रेमपत्र
जैसे शिशु रखता है धरती पर पहला क़दम
कोई घूँघटवाली स्त्री उठाती है पानी से भरा घड़ा
स्पर्श करती है हवा फूलों को जैसे
जैसे चेहरे को छूती है बारिश की पहली बूँद
दुआ में उच्चरित होते हैं अनकहे शब्द जैसे
चिड़िया, प्रेमपत्र, स्त्री, बच्चा, फूल, बारिश और दुआ
इन सब में मैं हूँ
इनका होना ही मेरा होना है
शब्द तो निमित मात्र हैं
जब भी पढ़ना
अदब से पढ़ना
पढ़ना ऐसे ही
जैसे पढ़ा जाना चाहिए
एक दिन
मैं तुम्हारे शब्दों की उँगली पकड़कर
चला जा रहा था बच्चे की तरह
इधर-उधर देखता, हँसता, खिलखिलाता
तभी अचानक
एक दिन पता चला
तुम्हारे शब्द तुम्हारे थे ही नहीं
अब मेरे लिए निश्चिन्त होना असम्भव था
और बड़ों की तरह
व्यवहार करना ज़रूरी।
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