Poems: Arvind Kumar Khede

पत्थर

इतना न करो मुझ पर
घातक वार
इतना न करो मुझ पर
मारक प्रहार
कहीं पत्थर बन गया तो
मूक होकर
तुम्हारे सारे प्रश्नों के भार से
हो जाऊँगा मुक्त
बन जाऊँगा पूजनीय
और बटोर लूँगा
पूरे जनपद की आस्था।

शिकायत

तुम्हारे पास होंगे
कई चेहरे
मेरे पास तो बस
एक ही चेहरा है
उसी को
सही ढंग से
ओढ़ नहीं पाता हूँ
आँखों को
हरदम रहती है शिकायत
चेहरे के विरुद्ध
चेहरे के भावों को
उजागर करना पड़ता है
और बीच-बीच में
बड़ी पेचीदगियों के बीच
देखना पड़ता है
उस पार भी।

लकीरें

तुम्हारे चेहरे पर
जो लकीरें बनीं
मेरी हथेलियों में
उभर आयी हैं
इसलिए मैंने देखा नहीं
तुम्हारा चेहरा कभी।

पराजित होकर लौटा हुआ इंसान

पराजित होकर लौटे हुए इंसान की
कोई कथा नहीं होती है
न कोई क़िस्सा होता है
वह अपने आप में
एक जीता-जागता सवाल
होता है
वह गर्दन झुकाये बैठा रहता है
घर के बाहर
दालान के उस कोने में
जहाँ सुबह-शाम
घर की स्त्रियाँ
फेंकती है घर का सारा कूड़ा-कर्कट
उसे न भूख लगती
न प्यास लगती है
वह न जीता है
न मरता है
जिए तो मालिक की मौज
मरे तो मालिक का शुक्रिया
वह चादर के अनुपात से बाहर
फैलाये गए पाँवों की तरह होता है
जिसकी सजा भोगते हैं पाँव ही।

रख सकूँगा यह भरोसा क़ायम

मैं चल पड़ा हूँ
एक नये सफ़र में
नई उम्मीदों के साथ
कि मंज़िलें और भी हैं
यह सचाई
रहेगी मेरे साथ हरदम
कि सफ़र में मैंने
सपने नहीं रखे साथ में
जो भी मिलेंगे
उन्हें मैं दूँगा
स्नेह… प्रेम और सम्मान
जो मिलेगा मुझे
मैं उसे अपने
प्रारब्ध का प्रतिफल समझ
बिना किसी उलाहने के
सहर्ष भोग लूँगा
या ख़ुदा
मैं जानता हूँ
सफ़र कठिन है
लेकिन तुम रहोगे साथ
और मैं अन्त तक
रख सकूँगा यह भरोसा क़ायम
कि पिता कभी
क़ातिल नहीं हो सकता
तय हो जाएगा यह सफ़र
इतनी उम्मीद तो
मैं लेकर ही चलूँगा साथ।

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