Poems: Soni Pandey

यह जो दिखायी दे रहा है

ये जो दिखायी दे रहा है
दरअसल वैसा नहीं है जैसा दिख रहा है
ग़ौर से देखिए
इसके पीले रंग के नीचे की सतह लाल है
लाल की संगत में कुछ हरा है
टहनी में आबनूसी काला है
थोड़ा-सा भीतर सफ़ेद ठोस गूदा
और मटमैला द्रव्य लिए
यह जो दिखायी दे रहा है
पीला है…
मान लीजिए
यह जो सामने है
वैसा नहीं है जैसा आप महसूस रहे हैं
उसके पीछे कई परतें छुपी हैं
अनगिन रंग लिए जीवन के
सुख के, दुःख के
हास-परिहास और मिलने-बिछुड़ने के
बहुत कुछ है उसके साथ
रंग केवल लाल-नीला-पीला-हरा नहीं होते
जीवन में भी बेशुमार रंग भरे होते हैं…
इस लिए केवल सामने के चेहरे को देखने से पहले
सोचिएगा कि सच कुछ भी हो सकता है
जैसे अक्सर झूठे आरोपों पर
महज़ कुछ गवाहियों के आधार पर
बेगुनाह घोषित हो जाता है गुनहगार…
इस लिए उस आदमी के चेहरे को ग़ौर से देखिएगा
जिस पर अपराध का आरोप लगाकर टूट पड़े हैं लोग
चेहरा झूठ नहीं बोलता निहत्थे आदमी का
भीड़ में तब्दील होने से पहले
जुनैद के मारे जाने से पहले
एक बार ग़ौर ज़रूर करिएगा कि
यह जो गहरा स्याह रंग दिखायी दे रहा है
सुबह होते-होते उजास में बदल जाएगा…

कुछ अधूरी बातें

कुछ चिट्ठियाँ अधूरी रहीं उम्र भर
कुछ पते लिखे लिफ़ाफ़े रह गये दराज़ों में
कुछ बातें दबी रहीं मन में आज तक
यादों की पिटारी में कुछ बातें उफनती रहीं
बरसाती नदी की तरह जीवन में
एक अधूरी लिखी कविता जोहती रही बाट
पूरा होने की
और कविता की दो किताबें छपकर आ गयीं
ज़माने भर से मिले दर्द को पी लेती हूँ
और लिखकर डायरी में कुछ अधूरी कविताओं को
सो लेती हूँ नींद भर…
उनसे मिलने की बेचैनी ज़्यादा भली है मनुष्यों से…

दरअसल अधूरी चिट्ठियाँ गवाह हैं
कि नहीं लिख सकती अम्मा को मन की बात…

पता लिखा लिफ़ाफ़ा जानता है कि
जो कह न सकी तुमसे उन दिनों
वह दर्ज हैं उस ख़त में
पढ़ते ही तुम लौटोगे उल्टे पाँव
तुम्हारा लौटना, मेरी देहरी तक सम्भव नहीं
इस लिए पड़ा रहा लिफ़ाफ़ा दराज़ में…

एक सवाल

एक सवाल है
सच-सच बताना
जबरन छीनना ज्यादा मोहक था
या प्रेम से समर्पण?

सच-सच बताना
हासिल करने
और प्रेम से पाने में ज़्यादा सुखद
क्या था?

इन दिनों तुम मुझे
आतातायी, लुटेरे, भक्षक, नरपशु
अधिक लगे…
इसलिए तुमसे प्रेम करते हुए
अब टटोल लेना चाहती हूँ
तुम्हारे सीने पर
दिल है या पत्थर
क्योंकि सम्वेदनशील कहलाने वाले मनुष्य
औरत-देह को जबरन नोचा नहीं करते
केवल पशु भोगते हैं अपनी मादा को
तुम उनसे भी बदतर निकले
वह भी थोड़ा अनुनय-विनय करते दिखे मुझको
इसलिए
सच-सच बताना
कितने मनुष्य हो तुम
औरत के सन्दर्भ में?

बड़ी अजीब होती हैं ये औरतें

बड़ी अजीब होती हैं ये औरतें
न तुम्हारी गालियों से गलती हैं
न आरोपों से भस्म होती हैं

बड़ी अजीब होती हैं ये औरतें
रसोई का बचा हुआ आधा तीहा खाकर
किसी पुरानी साड़ी को प्रेस कर चमकाकर
गा आती हैं भजन तुम्हारी महफ़िल में
राग कोरस में कि…
सुना है तेरी महफ़िल में रतजगा है…
और तुम सोचते हो कि कितना बोलती हैं औरतें…

बड़ी अजीब होती हैं ये औरतें
लाख बद्दुआओं के बाद भी नहीं मरतीं इनकी कोख की बेटियाँ
कच्चा पक्का खाकर बढ़ जातीं हैं जैसे लौकी की लतर बिना खाद पानी के चढ़कर बैठ जाती है छानी पर
बढ़ चढ़ कर लहराती हैं बेटियाँ
बिना किसी टानिक या मेवे के टन-टन बोलती हैं
जैसे शिवाले की मध्यम भोर की घण्टियाँ
बजती हैं सभ्यता की देहरी पर
मांगलिक गीतों की धुन सी
मंगलकामना से भरी हुई
बड़ी अजीब होती हैं ये औरतें…

नमक

वे गलाते रहे
जैसे मिट्टी की हाण्डी गलती है
नून रखने से बरसात में
मिट्टी की देह गलती रही
उनकी इच्छाओं का नमक भरा था गले तक
जबकि देह में
एक दिल था जो चाहता था प्रेम
एक दिमाग़ था जो सोचता था दिन-रात
समझ थी
इच्छाएँ थीं
सब था देह में
उनके नमक से गलता गया…

गाल

आपके लिए गालों की गोलाई
सुन्दरता का मानक हो सकता है
उस पर जो काला तिल हो तो मर मिट सकते हैं
लेकिन मुझे जब भी बताया गया गालों के बारे में
मैं बिदक कर सोचती रही कि आख़िर क्यों कहती है आजी…
गाल देबों बजाय, सास जइहें लजाइ…
गाल फुला के मत बैठो
गाल मत बिचकाना
गाल के काले तिल के लक्षण पता करते माँ हलकान रही
सहेलियाँ छू कर देखतीं कि काजल से बनाया तो नहीं
एक सख़्त दिल अध्यापिका ने रुमाल से रगड़कर ख़ून तक निकाल तलाशा तिल का यथार्थ
मैं डरती रही हर बार अपने गालों के तिल को देख
यह कितनी अजीब बात है मेरी दुनिया में
जिस पर मुग्ध होना चाहिए था एक ख़ास उम्र में
मैं डरती रही
जिस उम्र में भूल जाती हैं औरतें ख़ुद को
पहचानने लगी हूँ ख़ुद को
छू कर देखती हूँ गालों के तिल को
भर जाती हूँ आत्मसौन्दर्य बोध से
बताने लगी हूँ बेटी को कि तुम्हारे गालों का सुन्दर तिल
दरअस्ल तुम्हें आत्मविश्वास देता है
रंग कोई हो
गोरा या काला
सावली लड़कियाँ भी सुन्दर होती हैं
अपने गालों के सुन्दर तिल के साथ…।

सफ़र है की ख़त्म ही नहीं होता

एक दुनिया है मेरे भीतर
और मैं निकाल दी गयी हूँ उनकी दुनिया से बाहर
अजब-ग़ज़ब खेल है अन्दर-बाहर का
हर आदमी ख़ुद को शोषित और दूसरे को शोषक बताने में लगा है
हत्यारे हमारे समय के सबसे मासूम लोग हैं
उनकी पहुँच बहुत ऊपर तक है
इतनी कि मैं हैरान हो सोचती हूँ
ईश्वर सबसे बड़ा साहब हो जैसे
भाता हो उसे छप्पन भोग इनका
हमारी फटी बिवाइयों से बहते ख़ून के गन्ध से घिनाता
हमारी खुरदुरी हथेलियों से पोई गई मोटी रोटी उसे नहीं भाती
वह रंग से सराबोर है ख़ास
हमारी दुनिया से रंग ग़ायब हो रहे हैं
जैसे कुछ पक्षी बस बचे हैं किताबों में
अनाज कहावतों में
खेल दादी की ज़ुबान पल शेष हैं जैसे
आदमी की आदमीयत भी पुरानी बात होती जा रही है
वह हँसते हैं हमारी ज़मीन छीनकर
ख़ुश होते हैं हमारे हिस्से का समेटकर
लहालोट हैं ईश्वर के छप्पर फाड़ दान पर
हम मुट्ठी भर देते रहे भूखे को
एक रोटी जानवर के लिए ज़रूर बनाई रसोंई में
सोचती रही सबके लिए
सब खंजर लिए खड़े रहे पीठ पर
लहूलुहान पीठ पर लादे अपनी लाश
इन दिनों बढ़ रही हूँ अनजाने रास्ते पर
चौराहे हैं हर मोड़ पर
ग़लत पता लिखा है हर तख्ती पर
थककर बैठी हूँ
सफ़र है कि ख़त्म ही नहीं होता है।

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सोनी पाण्डेय
शिक्षा- एम.ए.(हिन्दी), बी.एड., पी.एच.डी. (निराला का कथा साहित्य: कथ्य और शिल्प), कथक डांस जूनियर डिप्लोमा, बाम्बे आर्ट | प्रकाशित पुस्तकें - मन की खुलती गिरहें (कविता संग्रह), बलमा जी का स्टूडियो (कहानी संग्रह) | संपादित पुस्तकें- कथाकार उषाकिरण खान की कहानियों के विविध आयाम (प्रकाशकाधीन-स्वराज प्रकाशन), मैं और मेरे बचपन के दिन - स्त्री लेखिकाओं के संस्मरणों पर केन्द्रित (प्रकाशकाधीन-रश्मि प्रकाशन) | ईमेल - [email protected]

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