‘Suno Maa’, poems by Raginee Srivastava

1

सुनो माँ!
धीरे-धीरे सीख रही हूँ
जल्दी-जल्दी सब कुछ करना।

अलसाई नींद, अल्हड़ हँसी
और लापरवाह आदतों को
मायके के संदूक में बंद कर
आयी थी
‘नए घर’ में!

“अच्छे से रहना बेटी।”
समझ गयी थी,
नासमझ मैं,
तुम्हारी यह अर्थपूर्ण बात-
“हाँ तो माँ…”

अनगिन दायित्वों को निभाते
यादों के बक्से से
जब तब निकल आती हैं
रिमझिम बारिश, गुनगुनी धूप, अलसाई दोपहर
और मैं उन्हें छूते-छूते रह जाती हूँ हर बार।

2

सुनो माँ!

“जब चाहे चली आना, तुम्हारा ही घर है बेटी।” कहा था तुमने,
विदाई के वक़्त खोईंछे की पोटली बाँधते हुए
मैं जानती थी तुम्हारा यह सच भी
उस झूठ की तरह ही है
जो
अपनी बात मनवाने के लिए
बोला करती हो अक्सर तुम
और हाँ माँ…
‘तुम्हारा ही घर है…’
याद आते ही औपचारिकताओं के आँगन में
ज़िम्मेदारियों का ताला लगा अक्सर
मैं
चाभी भूल जाती हूँ।

यह भी पढ़ें:

ऋतुराज की कविता ‘माँ का दुःख’
वीरेन डंगवाल की कविता ‘माँ की याद’
लियोपोल्ड स्टाफ की कविता ‘माँ’
तसनीफ़ हैदर का लेख ‘माँ होना ज़रूरी नहीं’

Recommended Book:

Previous articleकल मिलो तो
Next articleकुलटा
रागिनी श्रीवास्तव
मूलतः कविता कहानी व आलेख लेखन। कादम्बिनी, अहा!ज़िन्दगी व दैनिक जागरण में प्रकाशन। आकाशवाणी गोरखपुर से कविताओं का प्रसारण। साझा संग्रह "कभी धूप कभी छाओं" में कविताओं की साझेदारी।

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here