कविता संग्रह ‘भेड़ियों ने कहा शुभरात्रि’ से
कवि
बिना कुछ कहे
चुपचाप लौट आया
न किसी की तरफ़ कोई पत्थर उछाला
न किसी की आँख के आँसू पोंछे
चाहता तो बोल सकता था
कम से कम
दो शब्द विरोध में
पर वो भय के साथ-साथ
अपनी भाषा भी बचा लाया
हैरान हूँ
कि घर लौटकर
वो इसी बची हुई भाषा से
या कहूँ तो
लगभग मर चुकी भाषा से
कविता लिखेगा।
एक रात
दिसम्बर की एक सर्द रात
अचानक कविता ने
रज़ाई में दुबके कवि को जगाया
और अब तक सम्मान और पुरस्कारों में मिले
शॉल और दुसालों का हिसाब माँग लिया
दिसम्बर की एक सर्द रात
पसीने से तरबतर हो गया कवि।
निर्वस्त्र
अपने चेहरे
उतारकर रख दो
रात की
इस काली चट्टान पर…
कपड़े भी!
अब घुस जाओ
निर्वस्त्र
स्वप्न और अन्धकार से भरे
भाषा के बीहड़ में…
कविता तक पहुँचने का
और कोई रास्ता नहीं
सिवा इसके।
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