‘Prakriya’, Hindi poem by Pranjal Rai
ठोकर खाकर गिरा एक बच्चा,
किन्तु धूल झाड़ते हुए जो उठा
वह एक समझदार आदमी था।
इस बार वह और ज़्यादा ताक़त के साथ दौड़ा,
बल्कि उड़ान भरी सूरज की ओर
और पंख झुलसने के बाद उसने चलना सीख लिया।
चलते-चलते अचानक एक दिन
उसने देखा कि उसके बालों पर
उम्र के पंजों के निशान उभर आये थे
उसके होठों पर तैर गयी एक विषण्ण मुस्कान।
ऐसी ही एक हँसी में उसने महसूस किया
अपने जबड़ों का खोखलापन,
शीशे की धुँधली दीवारों से झाँकती आँखों ने
इसी तरह एक दिन देखा
गाल पर उभरता आयु का असममित-अव्यवस्थित शिल्प,
और पीठ पर पश्चातापों की वक्रता।
यह एक अदद यात्रा के कुछ खुले हुए सिरे हैं
और अनचीन्हे-अव्यक्त पोरों की तो गिनती ही नहीं।
एक यात्रा,
जो भावों और अभावों के अंतर्द्वंद्व में पलती रही,
संक्रमण के हर दौर में पिछली छायाएँ गलती रहीं।
वह यात्रा जो कभी ठोकरों की सीख से गुज़री,
तो कभी अपनी ऊँचाई से ऊपर टँगे सपनों को पकड़ने की कोशिश में,
और इस तरह अपने कन्धे से ऊपर उठने की
तमाम असफल कोशिशों से छूटते हुए,
एक दिन आदमी उन कँधों को ही छोड़ गया।
गुरुत्त्व के आकर्षण से ऊपर उठ गयी आग,
आग के ऊपर धुँआ,
पीछे रह गयी राख,
जो अपने-आप में काल का एक स्थूल अनुवाद है।
चिता की राख
समय के साथ दौड़ने की कोशिश में
आदमी के झरकर गिर जाने की कथा का उपसंहार है।
देर-सवेर भुला दिए जाने के अपने शाश्वत प्रारब्ध के साथ,
आख़िर में बची रही फ़्रेम में तस्वीर भर स्मृतियाँ-
एक अनन्त प्रत्यावर्तन का हिस्सा बनकर।
सचमुच ‘जाना हिन्दी की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया है’
और धीरे-धीरे भूल जाना सबसे ख़ौफ़नाक प्रक्रिया!
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*केदारनाथ सिंह की एक पंक्ति
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