(In collaboration with Acharya Shivpoojan Sahay Smarak Nyas)

‘प्रोपगंडा’-प्रभु का प्रताप प्रचंड है – ‘जिन्‍हके जस-प्रताप के आगे, ससि मलीन रवि सीतल लागे।’ यदि आज ‘भूषण’ और ‘पद्माकर’ जीवित होते तो इनके यश और प्रताप का भड़कीला वर्णन कर सकते। मैं भला चूहे के चाम से दमामा कैसे मढ़ सकता हूँ? फिर भी आँख-कानवाला जन्‍तु हूँ, जिनके आँख-कान हैं उन्‍हें तो सुझा-बुझाकर प्रभुजी के प्रताप की बानगी दिखा ही दूँगा।

इनके प्रताप-सूर्य की किरणें सभी क्षेत्रों में प्रवेश कर गई हैं। राजनीतिक क्षेत्र में इनके जुए के नीचे कन्‍धा देने से कोई न बचा। साहित्यिक क्षेत्र में इन्‍हीं के प्रताप-प्रभाव से कुछ लोगों के चेहरे की लाली बनी हुई है। धार्मिक क्षेत्र में कितने ही लोग बाघम्‍बर ओढ़े दूसरों की हरी-भरी खेती चर रहे हैं। सामाजिक क्षेत्र में बहुतेरों की पाँचों उँगलियाँ घी में हैं – यद्यपि बाकी पाँच पर वे दिन गिन रहे हैं। व्‍यापारिक क्षेत्र में, इन्‍हीं प्रभुजी की छत्रच्‍छाया में, कुछ लोग जवानी की खैरात बाँट रहे हैं, नपुंसक को साँड़ बना रहे हैं, बाँझ की कोख आबाद कर रहे हैं, संतानों की बाढ़ रोकने का बीमा लेकर घुड़दौड़ का मुफ्त टिकट काट रहे हैं, ‘ययाति’ को यौवन-दान देते हैं और ‘सम्‍पाति’ के पंख उगाते हैं।

इन प्रभुजी का भक्‍त हुए बिना न कोई चाँदी काट सकता है, न मूँछ पर ताव दे सकता है, न हार में जीत का सपना देख सकता है, न किसी को उलटे छुरे से मूँड़ सकता है, न दुनिया की आँखों में धूल झोंक सकता है, न मिथ्‍या महोदधि का मंथन कर असत्‍यरत्‍न निकाल सकता है, न जादू की छड़ी फेरकर गीदड़ को शेर बना सकता है, न छछूँदर के सिर में चमेली का तेल लगा सकता है, न सूखी रेत में नाव चला सकता है, न ढोल की पोल छिपा सकता है, न कोयले पर मोहर की छाप लगा सकता है; इस दुनिया में कुछ भी नहीं कर सकता।

जिसके मन में इनका प्रताप व्‍याप गया, उसका बेड़ा पार समझिए। वह चाहे तो पानी में आग लगा दे, हवा में महल बना दे, आकाश में कुसुम खिला दे, अमावस को पूर्णिमा करके दिखा दे, तिल का ताड़ और राई का पहाड़ कर दे, कौए को हंस की चाल चला दे, एक सेज के दम्‍पति को दो सेजों पर सुला दे, पतोहू से सास का झोंटा नुचवा दे, भाई की पीठ में भाई की कटार भोंकवा दे, परदे की आड़ में रहकर रंगमंच पर खून-खराबा मचा दे, भीषण रेल-दुर्घटना में भी मौत को अँगूठा दिखा दे; चाहे जो कुछ कर दिखाना उसके बाएँ हाथ का खेल है; वह दुनिया को अँगुलियों पर नचा सकता है।

तुलसीदास ने लिखा है – ‘श्री रघुबीर प्रताप से सिन्‍धु तरे पाषान’ – शायद उन्‍हें इन प्रभुजी के प्रताप का पता न था। इनके प्रताप से ही अग्निवर्षा पुष्‍पवृष्टि बन जाती है, मारतों के पीछे और भागतों के आगे रहने वालों के सिर सेहरा बँध जाता है, दूध का धुला भी कालिख से पुता नजर आता है, लंकाकाण्‍ड में भी हिमालय की हिमवर्षा का दृश्‍य उपस्थित होता है, घनघोर महाभारत में भी केवल पाण्‍डवों का ही संहार होता है और कौरवों का बाल भी बाँका नहीं होता ! धन्‍य है प्रोपगंडा-प्रभु का प्रबल प्रताप ! ऐसा प्रताप तो रावण का भी न था ! उसकी बहन की नाक उसके जीते-जी काटी गई; मगर इन प्रभुजी की बहन ‘बेहयाई’ तो सारी दुनिया में छाती ताने फिरती है, कोई आँखें तो बराबर कर ले ! उसके देखते-ही-देखते उसका लंका-गढ़ एक वानर ने जला डाला, प्रभुजी का दुर्गम गढ़ ‘सफेद झूठ’ तो प्रलयाग्नि की लपटों को भी जुगनू की जोत बना देता है। प्रोपगंडा-प्रभु का पटतर पाना असंभव है।

श्री हनुमानजी राम प्रताप सुमिर‍कर कल्‍पनातीत कार्य कर डालते थे ! प्रोपगंडा-प्रभु का प्रताप भी यदि आपकी सुमिरनी का ध्‍येय बन जाय तो आप भी बिना हर्रे-फिटकरी के अपना रंग चोखा बना सकते हैं। तब तो राजनीति क्षेत्र में सदा आपकी पौ बारह है! आप मजे से खद्दर की खाल में स्‍वार्थ का भुसा भर सकते हैं। फिर तो मंच पर दहाड़िए और लंच में ‘व्हिस्‍की’ की चुसकी लीजिए। लच्‍छेदार भाषा से वाग्‍जाल बुनकर बुद्धुओं को फँसाइए। वाक्प्रपंच का ही तो यह युग है।

प्रभु-प्रताप से आप में ऐसी वचनचातुरी आ जाएगी कि आप दुनिया को चकमा देकर काजल की कोठरी से भी बेदाग निकल जाइएगा। आपके प्रतापी प्रभु की बहन खुद ही दुनिया की नाक काट लेगी। आपके प्रभु के गढ़ में शत्रु-सेना की तो बात ही क्‍या, बड़े-बड़ों की बुद्धि भी न पैठ सकेगी। और, प्रभु -प्रताप का सुमिरन करते हुए कहीं आप साहित्यिक क्षेत्र में जा पड़े, तो फिर कीर्ति की कलँगी लगी हुई गद्दीधर की पगड़ी आपके सिर। लीजिए सुविधाएँ, भोगिए अधिकार। अयोग्‍यता आपके तहखाने में घूँघट काढ़े बैठी रहेगी और योग्‍यता केवल ‘पाउडर’ और ‘लिपस्टिक’ के बल पर हाट-बाट में मटकती फिरेगी।

इसी तरह धार्मिक क्षेत्र में भी आप प्रभु-प्रताप से मन का घोड़ा सरपट दौड़ा सकते हैं, कहीं खन्‍दक-खाई न मिलेगी। अगर बाना आप ठीक बनाए रहें तो गोमुखी में चौमुखी कतरनी भी रख सकते हैं; एक ही मठ में आप विविध प्रकार के यज्ञकुण्‍ड रख सकते हैं। नीचे लंगरखाने का नगाड़ा, ऊपर इन्‍द्र का अखाड़ा! यदि सचमुच आप प्रभु-प्रताप का मन्‍त्र जपते रहे तो सारी दुनिया को आप अपनी टाँगों के नीचे से निकाल देंगे। ऐसा प्रखर प्रताप है प्रोपगंडा-प्रभु का!

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Author’s Book:

शिवपूजन सहाय
शिवपूजन सहाय (जन्म- 9 अगस्त 1893, शाहाबाद, बिहार; मृत्यु- 21 जनवरी 1963, पटना)। हिन्दी के प्रसिद्ध उपन्यासकार, कहानीकार, सम्पादक और पत्रकार के रूप में ख्याति। उन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन १९६० में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। 1962 में भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा दी. लिट्. की मानक उपाधि।