विजय सिंह के उपन्यास ‘जया गंगा’ से उद्धरण | Quotes from ‘Jaya Ganga’, a novel by Vijay Singh

चयन: पुनीत कुसुम


“ज़िन्दगी में कुछ ऐसे कलात्मक और नैतिक क़र्ज़ होते हैं जिन्हें उतारा नहीं जा सकता।”


“अक्सर ऐसा होता है कि वे स्त्रियाँ, जिनसे आपने सबसे कम प्यार किया होता है, आपके जीवन के बारे में कोई आख़िरी फ़ैसला देकर चली जाती हैं।”


“नहीं, मेरे अलौकिक साक्षी, हम कभी नशे में नहीं होते, यह तो वक़्त है जो नशे में होता है। शराब सिर्फ़ यह बताती है कि हम कुछ नहीं, सिर्फ़ वक़्त के विशाल पहिए के दाँत हैं।”


“हम एक सनकी इतिहास की संतानें हैं और इतिहास किसी विदूषक का छिपा हुआ आँसू है।”


“अनुपस्थिति का अर्थ दुःख नहीं है। प्रसन्नता और उदासी इस क़दर सांसारिक चीज़ें हैं कि वे मन की ब्रह्माण्डीय अवस्थिति के सिंहासन पर नहीं बैठ सकतीं। कभी-कभी सम्पूर्ण अनुपस्थिति सम्पूर्ण उपस्थिति बन जाती है। अनुपस्थिति आन्तरिक संसार को इस तरह चमका देती है, जैसे एक छोटा-सा जुगनू एक अभेद्य रात को प्रकाशित करता है।”


“अनुपस्थिति स्वतन्त्रता की एक अवस्था को बतलाती है, एक भयावह स्वतन्त्रता। अनुपस्थिति आपको एक खुली जेल में क़ैद कर देती है। वह घिसी-पिटी रवायतों और रूढ़ियों की दुनिया को फिर से रचने का मौक़ा देती है, लेकिन उसी के साथ एक अन्धापन भी सौंपती है जो आपको वह सब देखने से रोक देता है जिसे आपने फिर से रचा है। वह आपको राजपाट सौंपती है, लेकिन आँखें नहीं देती जिनसे आप अपनी रानी को देख सके हों। अनुपस्थिति आपके संसार को नये सिरे से रचती है, लेकिन वह ऐसी रचना होती है जो अपने रचनाकार के वजूद को नहीं मानती। वह एक भ्रम है, एक अन-इतिहास। वह है और नहीं है। उसका कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि जो भी है वह कुछ नहीं है।”


“सारी विदाइयाँ अपने पीछे एक जैसा दर्द छोड़ जाती हैं। वही ख़ालीपन, भीतर वही धीमी बारिश, क्षितिज पर लटका हुआ वही भ्रूण। विदाई या विलगाव अगर मृत्यु होते तो उनसे आसानी से निबटा जा सकता था। क्योंकि मृत्यु स्वयं ही मृत है, उसकी अपनी कोई चेतना नहीं है। मृत्यु को दूसरा जीता है जो इस पर विचार कर सकता है, इसे समझ सकता है। विदाई एक सीमा की झलक दिखाती है, एक मिलन की सीमा, जिसके पार न कुछ है, न कुछ होगा। वह फिर से एहसास दिलाती है कि मनुष्य के जीवन की विभिन्न अवस्थाएँ दरअसल उसी अकेले भ्रूण के बदलते हुए रूप हैं। एक ऐसी दुनिया में जहाँ सब कुछ अस्थायी और क्षणभंगुर है, विदाई यही याद दिलाती है कि लाखों निगाहों के नीचे हम अकेले, निपट अकेले हैं। विदाई और कुछ नहीं, अपने जन्म के आईने के सामने खड़ा इनसान है।”


“लिखना मन के भूमिगत आघातों को फिर से जीना है। वह उस सच को महसूस करना है, जो सच से भी ज़्यादा सच है। लिखना अपने भीतर के उन अनजान सीमांतों में उतरना है जहाँ एक संयोग से तुमने मुझे छुआ था। लिखना अकेलेपन से मिलना है, उसी तरह जैसे हम दोनों गीली रेत पर अन्तहीन सुख के एक पल में मिले थे। उस अकेलेपन से ज़्यादा रचनात्मक कुछ भी नहीं है जहाँ दूसरे की, तुम्हारी उपस्थिति दूसरे किसी भी पल से ज़्यादा उपस्थित है।”


“अगर तुम सपनों में खोए हुए हो तो दुनियादारी के दरवाज़े बन्द कर देना ही बेहतर है।”


“कवि और उसकी कविता के बीच हल्का-सा फ़ासला होता है। अगर तुम कविता हो तो उसे जियो। और अगर तुम कवि हो तो उसे लिखो। कवि और कविता का अस्तित्व समय के एक ही बिन्दु पर नहीं होता। ठीक उसी तरह जैसे प्रेम और प्रेमी समय के एक ही बिन्दु पर नहीं होते। कवि के भीतर कविता इसलिए होती है कि कवि कविता नहीं बन सकता।”


“जीवन का कोई बिन्दु ऐसा होता है जहाँ न कुछ गर्म होता है न सर्द, सब विरोधाभास ख़त्म हो जाते हैं। जुनून का बीज उसी पल में पैदा होता है।”


“जीवन अनुपस्थिति और उपस्थिति के बीच एक अन्तहीन गलियारा है।”


“तीसरी दुनिया तो मल्टी-नेशनल कम्पनियों का कूड़ेदान बन गई है।”


“आप इसलिए जीवित नहीं हैं कि आप जीवित हैं, बल्कि इसलिए कि आपके भीतर कोई और चीज़ जीवित है।”


“प्रेम मुक्ति के राज्य में पैदा हुआ है। सभी को स्वतन्त्र होकर चुनने का अधिकार है।”


“ग्लानि? नैतिकता पर मानवता का क़र्ज़, जिसके रक्त से चुकाना होता है। सुंदरता? यथार्थ में भ्रम की चिनगारी। दर्द? मजबूरी।”


“याद और चाहत एक चौराहे पर मिलते हैं। दोनों एक-दूसरे को देखते हैं और गुज़र जाते हैं, एक भी शब्द कहे बग़ैर।”


“प्रेम? प्लेटो की गुफा में छायाओं का नृत्य।”


“मैंने बहुत-सी क़ब्रें खोदी हैं, और अक्सर उनके भीतर लाशों को ज़िन्दा और धड़कता हुआ पाया है। मेरे तमाम प्रेमों की एक सामूहिक लाश थी। उसका रंग हल्का हरा था, बसन्त का रंग।”


“दुःख? एक समुद्र तट, जहाँ मैं अकेला चलने वाला हूँ और मेरी छाया मेरी प्रेमिका है।”


“लगता है जैसे मेरा कुछ चुरा लिया गया है। मेरी आत्मा को नहीं। न मेरे जीवन को। न मेरे एहसासों को। ऐसी किसी अमूर्त चीज़ को नहीं। किसी ठोस चीज़ को चुराया गया है जिसे कोई प्रेमी ही चुरा सकता है।”


मानव कौल के उपन्यास 'अंतिमा' से उद्धरण

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विजय सिंह
भारतीय लेखक और फ़िल्मकार विजय सिंह पेरिस में रहते हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में ‘जया गंगा’ (1990), ‘ल नुइट पोइग नार्दे’ (1987), ‘व्हर्लपूल ऑफ़ शैडोज़’ (1992), ‘द रिवर गॉडेस’ (1994) आदि शामिल हैं। आपकी पुस्तकों के अनुवाद फ्रांसीसी तथा अन्य भाषाओं में भी हो चुके हैं। साहित्यिक लेखन के लिए आपको प्रिक्स विला मेडिसिस हॉर्स लेस मुर्स तथा फ़िल्म पटकथा लेखन के लिए बोर्स लिओनार्दो डि विंसी पुरस्कार मिल चुके हैं। रंग निर्देशक के रूप में आपने 1976 में ‘वेटिंग फॉर बैकेट बाइ गोदो’ नाटक का निर्देशन किया। इसके कुछ वर्षों बाद आपने ‘मैन एंड एलिफ़ैंट’ फ़िल्म का निर्देशन(1989) किया, जिसे सौ से ज़्यादा टीवी चैनलों पर दिखाया जा चुका है। पटकथा लेखक और फ़िल्म निर्माता के रूप में आपको ‘जया गंगा’ तथा ‘वन डॉलर करी’ फ़िल्मों के निर्देशन का श्रेय जाता है। ‘जया गंगा’ फ़िल्म पेरिस के सिनेमाघरों में लगातार 49 सप्ताह चली।