मृदुला गर्ग के उपन्यास ‘चित्तकोबरा’ से उद्धरण | Quotes from ‘Chittakobra’, a novel by Mridula Garg

चयन: विक्रांत (शब्द अंतिम)

“जो मन में हो, उसे छिपाना भी पड़ता है। बेरहमी से। और जो न हो, उसे कहने का बोझ तो बराबर ढोना पड़ता है, ज़िन्दगी में।”


“कितना सम्मोहन होता है ख़तरे में।”


“बलिदान देने से आत्मा कुण्ठित हो जाती है। आदमी अपने ऊपर घमण्ड करने लगता है।”


“लोगों की मदद करने से बढ़कर ख़तरनाक काम कोई नहीं है। भलाई योजनाबद्ध तरीक़े से न की जाए तो भले के बजाय बुरा होने की पूरी गुंजाइश रहती है।”


“प्रेम परोपकार नहीं होता। जो प्रेमी बलिदान चाहे, वह प्रेमी नहीं होता। बलिदान के बाद प्रेम, प्रेम नहीं रहता, परोपकार बन जाता है। आदर्श नहीं, घमण्डी और बनावटी परोपकार।”


“कायर को सबसे बड़ा डर यही होता है कि कहीं कोई उसे कायर न कह दे। जो जितना बड़ा कायर होता है, उतना ही व्यापक होता है उसका अपराध-बोध। उतनी ही भयंकर होती है उसकी वेदना और शर्मनाक उसकी कायरता।”


“कायर होना एक बात है, कायर होने को स्वीकार करना दूसरी।”


“सुना है, मृत्यु का अवश्यम्भावी क्षण बहुत भयावह होता है। गिलोटिन के गिरने का दिन निश्चित हो; फाँसी के फंदे पर लटकने का लम्हा तय हो; बच के भाग निकलने की आशा शेष न हो तो मनुष्य, मनुष्य नहीं रहता, डर और आशंका से कँपकँपाती नसों का लोथड़ा बन जाता है।”


“ख़ुदा को मख़ौल की सख़्त ज़रूरत है। लोगों को चाहिए, दिल खोलकर ख़ुदा का मख़ौल उड़ाएँ। तभी वह आसमान से उतरकर ज़मीन पर आ सकता है।”


“उम्र सिर्फ़ शरीर की बढ़ती है, मन की नहीं।”


“कंफ़ेशन कायरता है। अपनी व्यथा को दूसरे के सिर मढ़ देना, कायरता नहीं तो, क्या है? जिसके प्रति अपराध हुआ हो, उसे सब कुछ बतला देना, गौरवान्वित अनुभव करके अपना अपराध कम करने की चाह से पैदा होता है।”


“असल बात प्यार करना है, प्यार पाना नहीं।”


“अगर समाज में रहने वाले हर पति को अपनी पत्नी से प्यार होगा और हर पत्नी को पति से, तो समाज की भला कौन परवाह करेगा? बच्चों की परवरिश बन्द हो जाएगी। व्यापार-व्यवसाय ठप्प हो जाएँगे। राजनीति का भट्ठा बैठ जाएगा। बड़े-बूढ़े मर-खप जाएँगे। सभी स्त्री-पुरुष एक-दूसरे में डूबे रहेंगे और देश रसातल को चला जाएगा। प्यार होने पर और कुछ नहीं सूझता, है न? हमारा समाज कितना सूझ-बूझ वाला है, अपनी सुरक्षा का कितना बढ़िया उपाय ढूँढ निकाला है। तयशुदा ब्याह (अरेंज्ड मैरिज)। है न?”


“अच्छा काम है लघु उद्योग चलाना। सामाजिक अपराध-बोध से आदमी बचा रहता है। लघु शब्द बड़ा करामाती है। बड़े उद्योग चलाओगे तो शोषक कहलाओगे, लघु उद्योग चलाओगे तो देशसेवक।”


“चेहरे पर बेशुमार झुर्रियाँ हों, देह कमज़ोरी से लाचार हो तो मन का दर्द कम होने लगता है। इसलिए नहीं कि मन बूढ़ा हो जाता है… शायद इसलिए कि झुर्रीदार बदन बीते हुए दिनों में जीकर सन्तुष्ट हो जाते हैं। वर्तमान से लगाव नहीं रखते। आँखें मूँद लेते हैं और आज को दूर खदेड़ देते हैं।”


“चलते हुए आदमी के लिए इंतज़ार करना आसान है। पर ठहरे हुए आदमी के लिए?”


“हिन्दुस्तानी स्त्री मातृत्व की साक्षात् प्रतिमा होती है… हिन्दुस्तानी पुरुष की दृष्टि में। वह सोच भी नहीं सकता, वह माँ के अलावा कुछ और बनना चाह सकती है।”


“पगडण्डियाँ समान्तर रेखाएँ नहीं होतीं। भटक-भटककर आगे बढ़ती हैं। अलग-अलग पगडण्डियों पर चल रहे दो प्राणी कभी भी आपस में टकरा सकते हैं।”


“दिन का अंधकार ख़तरनाक होता है। रात का अँधेरा नींद लाता है, दिन का अँधेरा ख़्वाब।”


“आजकल प्रेमी सभ्य हो गए हैं। समाज से भागकर गुफाओं में पनाह नहीं लेते। सामाजिक नियमों का उल्लंघन कर भी जाएँ तो कुछ दिन बाद स्वयं लौट आते हैं, और ख़ुद अपने-आपको ज़िन्दा मौत के हवाले कर देते हैं।”


“अँधेरा अपना निजी होता है, बाहर चाहे कितनी भी रोशनी क्यों न हो।”


“आदमी सभ्य जो हो गया, समाज से विद्रोह करता है तो स्वयं अपने को अपराधी मान, सज़ा सुना देता है।”


विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' से उद्धरण

‘चित्तकोबरा’ यहाँ ख़रीदें:

पोषम पा
सहज हिन्दी, नहीं महज़ हिन्दी...