मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘कसप’ से उद्धरण | Quotes from ‘Kasap’, a novel by Manohar Shyam Joshi

प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन

चयन: पुनीत कुसुम


मुझे तो समस्त ऐसे साहित्य से आपत्ति है जो मात्र यही या वही करने की क़सम खाए हुए हो।


ज़िन्दगी की घास खोदने में जुटे हुए हम जब कभी चौंककर घास, घाम और खुरपा तीनों भुला देते हैं, तभी प्यार का जन्म होता है। या शायद इसे यों कहना चाहिए कि वह प्यार ही है जिसका पीछे से आकर हमारी आँखें गदोलियों से ढक देना हमें चौंकाकर बाध्य करता है कि घड़ी-दो घड़ी घास, घाम और खुरपा भूल जाएँ।


प्रेम किन्हीं सयानों द्वारा बहुत समझदारी से ठहरायी जानेवाली चीज़ नहीं।


आधुनिक मनोविज्ञान मौन ही रहा है प्रेम के विषय में, किन्तु कभी कुछ उससे कहलवा लिया गया है तो वह भी इस लोक-विश्वास से सहमत होता प्रतीत हुआ है कि ‘असम्भव’ के आयाम में ही होता है प्रेम-रूपी व्यायाम। जो एक-दूसरे से प्यार करते हैं वे लौकिक अर्थ में एक-दूजे के लिए बने हुए होते नहीं।


भदेस से परहेज़ हमें भीरु बनाता है।


यदि प्रथम साक्षात् की बेला में कथानायक अस्थायी टट्टी में बैठा है तो मैं किसी भी साहित्यिक चमत्कार से उसे ताल पर तैरती किसी नाव में बैठा नहीं सकता।


प्रेम होता ही अतिवादी है। यह बात प्रौढ़ होकर ही समझ में आती है उसके कि विधाता अमूमन इतना अतिवाद पसन्द करता नहीं। ख़ैर, सयाना-समझदार होकर प्यार, प्यार कहाँ रह पाता है!


प्रेम जब गिनने बैठता है तो बहुत उदारता से।


दो लोग, दो घड़ी, साथ-साथ इतना-इतना अकेलापन अनुभव करें कि फिर अकेले न रह पाएँ।


अकेलेपन में भी कुछ है जो नितान्त आकर्षक है, सर्वथा सुखकर है लेकिन अफ़सोस कि उसे पा सकना अकेले के बस का नहीं।


प्यार एक उदास-सी चीज़ है, और बहुत प्यारी-सी चीज़ है उदासी।


अब वह उदास ही नहीं, आहत भी था। उदास और आहत, दोनों होना, उसे कुल मिलाकर प्रेम को परिभाषित करता जान पड़ा।


प्रेम को वही जानता है जो समझ गया है कि प्रेम को समझा ही नहीं जा सकता।


प्रेमी जिन्हें दर्ज करते हैं, उन बातों के सन्दर्भ में यही प्रतिक्रिया होती है कि यह भला कोई बात है!


कितनी ख़राब पटकथा लिखता है परमात्मा, परमात्मा क़सम!


प्यार के कैमरे के दो ही फ़ोकस हैं—प्रिय का चेहरा, और वह न हो तो ऐसा कुछ जो अनन्त दूरी पर स्थित हो।


नियति लिखती है हमारी पहली कविता और जीवन-भर हम उसका ही संशोधन किए जाते हैं। और जिस बेला सदा के लिए बन्द करते हैं आँखें, उस बेला परिशोधित नहीं, वही अनगढ़ कविता नाच रही होती है हमारे स्नायुपथों पर।


आभिजात्य की उपस्थिति मात्र मध्यवर्गीय मन के लिए किसी भी गाली, किसी भी प्रहार से अधिक हीनभावनाप्रद होती है।


वर्षों-वर्षों बैठा रहूँगा मैं इसी तरह इस गाड़ी में जिसका नाम आकांक्षा है। वर्षों-वर्षों अपनी ही पोटली पर, मैले फ़र्श पर, दुखते कूल्हों, सो जाती टाँगों पर बैठा रहूँगा मैं। संघर्ष का टिकट मेरे पास होगा, सुविधा का रिजर्वेशन नहीं।


जीवन में क्या-क्या नहीं होता, यह जानते-समझते जिज्ञासुओं का पूरा जीवन बीत जाता है। विविध है, विचित्र है, मायावी है जीवन।


क्या हम मानव एक-दूसरे को दुख-ही-दुख दे सकते हैं, सुख नहीं? हम क्यों सदा कटिबद्ध होते हैं एक-दूसरे को ग़लत समझने के लिए? इतना कुछ है इस सृष्टि में देखने-समझने को, फिर भी क्यों हम अपने-अपने दुखों के दायरे में बैठे रहने को अभिशप्त हैं? अगर हम ख़ुशियाँ लूटना-लुटाना सीख जाएँ तो क्या यही दुनिया स्वर्ग जैसी सुन्दर न हो जाए?


प्रेम के आनन्द को प्रेम की पीड़ा से अलग नहीं किया जा सकता।


कदाचित् चिर-अतृप्ति ही प्रीति है। प्यास ही प्यार है।


यह सही है कि काम अर्थात् इच्छारहित प्रेम नहीं हो सकता, लेकिन यह भी सही है कि जहाँ काम प्रमुख है, वहाँ प्रेम हो नहीं सकता। काम रूप बिन प्रेम न होई, काम रूप जहाँ प्रेम न सोई।


नायक ने एक आंग्ल कवयित्री को उद्‌धृत करते हुए लिखा कि प्रीति एक धधकती हुई किन्तु सन्दर्भहीन सूक्ति है और एक अमरीकी कवयित्री को उद्धृत करते हुए लिखा कि प्रेमी प्रिया की मुक्ति चाहता है—स्वयं अपने तक से!


प्रेम में जो भी तुम उसे लिखते हो, ख़ुद अपने को लिखते हो। डायरी भरते हो तुम और क्योंकि वह तुमसे अभिन्न है इसलिए उसे भी पढ़ने देते हो।


भाषा का तेवर हर किसी का अपना होता है। इसमें तानाशाही नहीं चल सकती पण्डितों की।


यही दुर्भाग्य है। सर्वत्र, सर्वदा उपस्थित लोग आवश्यकता से अधिक होते हैं। कोण बन जाते हैं। कोने चुभते हैं। दो ही रह जाएँ तो भी कुल उपस्थिति में एक व्यक्ति फालतू प्रतीत होता है। जब वे सोचते हैं कि हम एक क्यों नहीं हो जाते या जब उनमें से एक सोचता है कि मैं इस दूसरे में खो क्यों नहीं जाता, या मैं इस दूसरे के हित मिट क्यों नहीं जाता, तब उनमें प्रेम हो जाने की बात कही जाती है। लेकिन जब प्रेम नहीं होता तब यह दूसरा इतना चुभता है आत्मा में कि हम कहते हैं वही साक्षात् नरक है।


प्रेम हो सकने के लिए एक स्तर पर क्षण के सहस्रांश की अवधि पर्याप्त है और दूसरे स्तर पर अनेकानेक कल्पों की भी अपर्याप्त।


प्यार होने के लिए न विपुल समय चाहिए, न कोई स्थूल आलम्बन! उसके लिए कुछ चाहिए तो आक्रान्त हो सकने की क्षमता।


व्यंग्य और ईर्ष्या का पात्र समझा जाना इस समाज में महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में मान्य हो जाने की निशानी है।


अपने वर्तमान पर लानत भेजने का युवाओं को वैसा ही अधिकार है, जैसा मेरे-जैसे वृद्धों को अतीत की स्मृति में भावुक हो उठने का।


बच्ची से कैसे कहा जाता है तू अब केवल स्त्री है। और अगर कह दिया जाता है ऐसा, तो फिर यह कैसे कहा जाता है कि यही वयस्कता तेरी स्वतन्त्रता का हनन करती है। बच्ची! अब हम तेरी हर बात को बचपना मानकर उड़ा नहीं सकते। और स्त्री! तू कभी ऐसी स्त्री हो नहीं सकती कि अपने मन की कर सके। बच्ची-स्त्री, तू अपने को स्त्री जान; स्त्री-बच्ची, तू अपने को हमारी बच्ची-भर मान।


जीवन में कुछ भी ‘फ़्रीज़’ नहीं होता। प्रवाहमान नद है जीवन। क्षण-भर भी रुकता नहीं किसी की कलात्मक सुविधा के लिए।


भक्षण प्रेम का अन्तिम चरण है। कितना तो प्यारा लग रहा होता है चूहा बिल्ली को, जिस समय वह पंजा मार रही होती है उस पर।


तुतलाहट से आगे क्यों नहीं बढ़ पाती प्रीति की बानी? और क्यों, जब वह इस सीमा का उल्लंघन करना चाहती है, तुतलाहट से भी निम्नतर कोटि—हकलाहट—में पहुँच जाती है वह? प्राचीन आचार्य भी इस तथ्य से अवगत रहे। वे कह गए हैं कि प्रेम में संलाप-प्रलाप-अनुलाप-अपलाप आदि ही होता है। हर प्रेमी जानता है कि प्रतिपक्ष क्या चाह रहा है, किन्तु जानकर-भी-न-जानते का विधान है।


वे समझते हैं कि किताबें इस तरह समझनी होती हैं कि अनन्तर परीक्षक के समक्ष प्रमाणित किया जा सके कि हम इन्हें वैसा ही समझ गए हैं जैसा कि आप और आपके परीक्षक समझे थे। वह उस स्थिति से अनभिज्ञ हैं जिसमें पढ़नेवाला उतना समझ लेता है, जितना उसे समझना होता है।


प्यार किसी और की चुनौती से नहीं, अपनी ही अस्मिता की चुनौती से उपजता है।


कितना सुन्दर है संसार! कितने अभागे हैं हम कि इसे देखने का अवसर, अवकाश नहीं मिलता हमें! कितने मूर्ख हैं हम कि अगर कहीं जाते भी हैं तो अपनी चिन्ताओं को ही साथ ले जाते हैं! कितनी विराट विविध है यह सृष्टि और कैसी है यह विडम्बना कि हमारे लिए अपनी एकविध क्षद्रुता ही हर कहीं सर्वोपरि रहती है! कहीं इसीलिए तो पूर्वज सुरम्य स्थलों पर मन्दिर नहीं बनवा गए कि यहाँ तो भूलो, यहाँ तो झुको!


जिन्हें वे भावनाएँ कहते हैं, और कुछ नहीं, तुम्हारा शोषण करने की सुविधाएँ होती हैं। मैं जानती हूँ कि इस नुस्ख़े का मर्द किस तरह उपयोग करते आए हैं औरत के शोषण के लिए, और औरतें भी कैसे इसी को अपने संरक्षण-संवर्द्धन का हथियार बनाने को बाध्य हुई हैं।


प्यार लिप्सा और वर्जना के ख़ानों पर ज़माने-भर के भावनात्मक मोहरों से खेली जानेवाली शतरंज है। अन्तरंगता खेल नहीं है, उसमें कोई जीत-हार नहीं है, आरम्भ और अन्त नहीं है। प्यार एक प्रक्रिया है, अन्तरंगता एक अवस्था।


हम सब अपनी-अपनी दृष्टि में अनुपम हैं।


यह मानने का जी नहीं करता कि उसने हम कीड़े-मकोड़ों में से एक-एक का पूरा जीवन-चरित ख़ुद गढ़ा है। मुझे लगता है कि एक विशिष्ट ढंग से उसने फेंक दिया है हमें कि मण्डराओ और टकराओ आपस में। समग्र पैटर्न तो वह जानता है, एक-एक कण की नियति नहीं जानता। क़समिया तौर पर वह ख़ुद नहीं कह सकता कि इस समय कौन कण कहाँ, किस गति से, क्या करनेवाला है। नियतियों के औसत वह जानता है, किसी एक की नियति नहीं।


सभी निर्णय ग़लत निर्णय होते हैं, किसी-न-किसी सन्दर्भ में, किसी-न-किसी के सन्दर्भ में। हमें वही निर्णय करना चाहिए जो हमारे अपने लिए, हमारे विचार से सबसे कम ग़लत हो।


जो कहते हैं कि हम यह सब तुम्हारी भलाई के लिए कह रहे हैं, वह यह भी कह रहे होते हैं कि तुम्हारी भलाई में ही हमारी भलाई है।


आप जानते हैं, स्वीकारते हैं निःश्वास छोड़कर कि यह मैत्रेयी का बाल-हठ नहीं, तिरिया-हठ नहीं, अस्तित्व-हठ है।


नर के लिए प्यार का उन्माद वहीं तक होता है, जहाँ तक कि वह स्वीकार न हो जाए। उसके बाद उतार ही उतार है। उधर मादा के लिए उसकी उठान ही स्वीकार से आरम्भ होती है।


विफल दाम्पत्य संवादहीनता को जन्म देता है। सफल दाम्पत्य संवाद की अनावश्यकता को। क्या मौन ही विवाह की चरम परिणति है?


स्मृति क्यों तुच्छ को महत्त्वपूर्ण और महत्त्वपूर्ण को तुच्छ मानती है, जितना प्रौढ़ होता जाता है मानव, क्यों उतनी ही बचकानी हुई जाती है, बचपन की ओर लौटने लगती है स्मृति!


हँसी-ठट्ठा समझ लिया है काम्या की हँसी को। धन्य भाग्य कि तू लाटा है और हँसी का सुपात्र ठहरा है।


बहुत अधिक हैं तर्क, बहुत तरह का है प्यार, और संसार साक्षात् नरक है अकेलेपन की यन्त्रणा का।


अगर मानवीय तर्क ही हैं तो प्रेम के लिए दो में से एक की बलि अपेक्षित है। प्रश्न यह है कि तू उससे प्रेम करता है या कि तू चाहता है वह तुझसे प्रेम करे?


प्रेम का तर्क अलंकारापेक्षी नहीं, वह सहज ऋजु है : मेरी निजता तुझसे है, मेरी अस्मिता तू ही है।


प्यार, बहुत ही प्यारे ढंग से ख़ूँख़ार भी होता आया है।


मानवीय प्यार और मानवीय जीवन में आधारभूत बैर है।


आत्मा जिस प्रेम-रहस्य की वाचिका है, वह काया की पोथी में ही लिखा है। इसे बाँच।


प्रेम, घृणा का रूप भले ही ले ले, उसे मैत्री में परिवर्तित करना असम्भव होगा।


अगर स्वाधीनता इसलिए चाहिए कि प्रेम हो सके और प्रेम तभी होता हो, जब प्रतिबद्धता हो तो स्वाधीनता का क्या होता है और प्रेम का क्या बनता है?


स्वार्थ और स्वाधीनता में क्या अन्तर है? प्रतिबद्धता और पराधीनता में कैसे भेद करें? विवेक को कायरता के अतिरिक्त कोई नाम कैसे दें?


सुधीजन स्वतन्त्र हैं मेरे लिए ‘लोलिटा कॉम्पलेक्स’ को ही नहीं, सारी कहानी को अस्वीकार करते हुए ‘ऐसा जो थोड़ी’ कहने के लिए। एक लड़के और एक लड़की के प्रेम की पहले लिखी जा चुकी कहानी अपने ढंग से फिर लिख देने के लिए, वैसे ही जैसे मैंने यहाँ इस बँगले में अकेले बैठे-बैठे लिख दी है। जब तक हम एक-दूसरे के मुँह से यह कहानी सुनने को और ‘ऐसा जो थोड़ी’ कहकर फिर अपने ढंग से सुनाने को तैयार हैं, तब तक प्रेम के भविष्य के बारे में कुछ आशावान रहा जा सकेगा।


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मनोहर श्याम जोशी
मनोहर श्याम जोशी (9 अगस्त, 1933 - 30 मार्च, 2006) आधुनिक हिन्दी साहित्य के श्रेष्ट गद्यकार, उपन्यासकार, व्यंग्यकार, पत्रकार, दूरदर्शन धारावाहिक लेखक, जनवादी-विचारक, फिल्म पट-कथा लेखक, उच्च कोटि के संपादक, कुशल प्रवक्ता तथा स्तंभ-लेखक थे। दूरदर्शन के प्रसिद्ध और लोकप्रिय धारावाहिकों- 'बुनियाद', 'नेताजी कहिन', 'मुंगेरी लाल के हसीं सपने', 'हम लोग' आदि के कारण वे भारत के घर-घर में प्रसिद्ध हो गए थे। वे रंग-कर्म के भी अच्छे जानकार थे। उन्होंने धारावाहिक और फिल्म लेखन से संबंधित 'पटकथा-लेखन' नामक पुस्तक की रचना की है। 'दिनमान' और 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' के संपादक भी रहे।

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