प्रस्तुति: पुनीत कुसुम

“उलगुलान की आग में जंगल नहीं जलता; आदमी का रक्त और हृदय जलता है।”

 

“अचेत होते-होते भी अपने ख़ून का रंग देखकर बिरसा मुग्ध हो गया था। ख़ून का रंग इतना लाल होता है! सबके ही ख़ून का रंग लाल होता है; बात उसे बहुत महत्त्व की और ज़रूरी लगी। मानो यह बात किसी को बताने की ज़रूरत थी! किसे बताने की ज़रूरत थी? किसे पता नहीं है? अमूल्य को पता है, बिरसा को मालूम है, मुण्डा लोग जानते हैं। साहब लोग नहीं जानते।”

 

“दादा कोम्ता कहता, ‘बड़े होने पर वह बाज़ार से एकदम एक बोरा नमक ले आएगा। जिसकी जितनी तबियत हो, उठाकर घाटो में मिलाकर खाना।’ बिरसा दादा के दम्भ की यह असम्भव बात सुनकर हँसता; बंसी लेकर निकल जाता।”

 

“पढ़ाई-लिखाई की दुनिया एक नई प्रकार की दुनिया थी। एक-एक अक्षर, एक-एक शब्द पढ़ पाने पर बड़ी विजय का अनुभव होता था—रग-रग में उल्लास—तीर से लक्ष्य बेधने का सा उल्लास! मूर्ख लोमड़ी और खट्टे अंगूर की कहानी जिस दिन उसने पढ़ी, अंग्रेज़ी पढ़कर समझ पाया, उस दिन बिरसा रो पड़ा। वह पढ़ पाया, पढ़ पाया और समझ सका। एक अपूर्व विजय थी। बिरसा के भाग्य ने उसे दूसरे ही जीवन से बाँध दिया था। उस अनुशासन को हेय करके बिरसा ने दूसरे जीवन में जन्म लिया था। प्रमाणित कर दिया था कि वह पुरुष है—नियति के निर्देश को अमोघ और अन्तिम नहीं मानता।”

 

“जीतनेवाले के नाम रिकॉर्ड रहता है—पराजित का नाम मनुष्य के रक्त में, बेगारी में, अभाव में, भूख में, शोषण में, धान के पौधे की तरह रोपा रहता है—वह नाम काले आदमी के हर गान में, स्मृति में, घाटो के फीके, नीरस स्वाद में, नंगे मुण्डा शिशु की विवर्ण चमड़ी में, मुण्डा-माता के फूले पेट में और महाजन के धान के बोरे को एक बार ढोने की मेहनत में…!”

 

“मिलिटरी रेजिमेन्ट के हाथों में राइफ़लें रहने से कुछ देर तो उनके हाथ राइफ़लों को चलाते हैं, उसके बाद राइफ़लें हाथों को चलाने लगती हैं।”

 

“पहले बनाए जल के जीव! मछलियों को बुलाकर बोले, ‘सागर के नीचे से माटी लाओ। ऊँची धरती पर जीव सिरजेंगे।’

सागर माटी क्या दें? माछ मुख में माटी लेकर उठतीं; सागर की लहरें माटी बहा ले जातीं। इधर हरम असूल सिंहभूम से भी बड़ा और चौड़ा हाथ बढ़ाए ही थे। माटी पाएँ तो माटी के जीव गढ़ें!

अन्त में केंचुआ निकल आया। पेट की मट्टी मल के साथ निकाल दी।

उसी माटी को पाकर हरम असूल ने सब गढ़ डाला।”

 

“‘बेटों ने देखभाल नहीं की, सो तू कर रहा है!’

‘तुम्हारे कोम्ता बेटा है, कनू बेटा है, सब भगवान का काम कर रहे हैं। वे कैसे देखभाल करेंगे?’

‘तू क्यों देखभाल करता है?’

‘मैं नानक हूँ। जब वक़्त आएगा, लड़ाई पर जाऊँगा।’

‘लड़ाई पर जाएगा? ख़रगोश मारने पर तू रोने नहीं बैठ जाता है?’

‘उससे क्या?'”

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महाश्वेता देवी
महाश्वेता देवी (14 जनवरी 1926 – 28 जुलाई 2016) एक भारतीय सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका थीं। उन्हें 1996 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उनकी कुछ महत्वपूर्ण कृतियों में 'नटी', 'मातृछवि ', 'अग्निगर्भ' 'जंगल के दावेदार' और '1084 की मां', माहेश्वर, ग्राम बांग्ला हैं। पिछले चालीस वर्षों में,उनकी छोटी-छोटी कहानियों के बीस संग्रह प्रकाशित किये जा चुके हैं और सौ उपन्यासों के करीब (सभी बंगला भाषा में) प्रकाशित हो चुकी है।

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