Tag: Adarsh Bhushan
स्त्रीत्व का अनुपात
मेरे शब्द हमेशा अधूरे रहे
कविताओं के मध्य;
सिर्फ़ उन भावों में
जहाँ पौरुष;
स्त्रीत्व के समानुपात में रहना था
लेकिन शब्दों के अनुतान में;
बड़े बेढब तरीक़े से
व्युत्क्रम में...
हमारे हिस्से की दिवाली
"मैंने लिस्ट बनाकर टेबल पर रख दी है। जाकर सारा सामान ले आओ। ऋषि को भी साथ ले कर जाना। और ये लो पैसे..."...
नींद
बस आ जाती है;
मत पूछो!
कैसे?
कब?
चंद उलझनों के बीच,
लड़खड़ाते;
नींद छू लेती है
पलकों और आँसुओं
के ठीक किनारे
के दायरों को;
और वो जो उठती गिरती
परछाईं होती है
अँधेरे में...
धरती ने अपनी त्रिज्या समेटनी शुरू कर दी है
मेरी तबीयत कुछ नासाज़ है
बस ये देखकर कि
ये विकास की कड़ियाँ किस तरह
हाथ जोड़े भीख मांग रही हैं
मानवता के लिए
मैं कहता हूँ कि
बस परछाईयाँ...
दर्पण को घूरते-घूरते
आज कुछ सत्य कहता हूँ,
ईर्ष्या होती है थोड़ी बहुत,
थोड़ी नहीं,
बहुत।
लोग मित्रों के साथ,
झुंडों में या युगल,
चित्रों से,
मुखपत्र सजा रहें हैं..
ऐसा मेरा कोई मित्र नहीं।
कुछ...
दुविधा (मुक्तिबोध की कविता ‘मुझे कदम कदम पर’ से प्रेरित)
कविताएँ अपने पाठकों के भीतर बहुत कुछ जगा देती हैं और उन्हें बहुत जगह भी देती हैं जिसमें कुछ न कुछ चुपचाप बैठा रहता...
पथिक
चलते-चलते रुक जाओगे किसी दिन,
पथिक हो तुम,
थकना तुम्हारे न धर्म में है
ना ही कर्म में,
उस दिन तिमिर जो अस्तित्व को
अपनी परिमिति में घेरने लगेगा,
छटपटाने...