तुझे लगता है मुझे होश है, मैं ज़िंदा हूँ?
सामने आएगा तो मरता हुआ पायेगा मुझे
सेज फूलों से नहीं ‘कै’ से भरी होगी मेरी
और उस कै में तेरे नाम के बिखरे अक्षर
जिन्हें मैं घोंट नहीं पाई और उगल बैठी!
फेंकने हाथ लगाती हूँ तो घिन्न आती है
देखना चाहूँ भी तो देख नहीं पाती मैं
सब गलीज़ है; बिस्तर भी तेरा नाम भी तो
मैं उसी कै से घिरी ख़ामशी से बैठी हूँ
उसपे रह-रह के जो उठती है खौफ़नाक-सी बू
वो तेरे लम्स का एहसास मिटा जाती है!
इक तेरे नाम का दस्तार बना रक्खा था
उसी को नोंच रही हूँ, चबा के सोई हूँ
और फिर से चबा के उल्टियां दुबारा कर
ज़ेहनी बीमार बनी बैठी महज़ हँसती हूँ!
तेरे आने के सवाबों पे नज़र जाती है
तुझे लगता है मुझे होश है, मैं ज़िंदा हूँ?