Poem: ‘Woh Auratein’ – Vandana Kapil

उलझनों में उलझी
कुछ ज़िंदगियाँ
यूँ ही बीत जाती हैं
बिन भरे रीत जाती हैं
हर नज़र देखती है
बस इमारतें बड़ी-बड़ी
उसकी नींव तले दबी सांसें
किसको नज़र आती हैं
उम्र फिसल गयी हाथ से
जोड़ते-घटाते
कुछ खर्चते-बचाते
फिर भी रह जाती है
वो भूखी
रात मुस्कराती है
पेट के बल लेटा उसको देखकर
और वो अक्सर
रात पर मुस्कराती है
बाँधकर पीठ पर
दुधमुँहा लाल अपना
मिट्टी डालकर
मरती मानवता की क़ब्र को
ढकने का भरसक
उपाय करती है
एक नहीं
तमाम हैं ऐसी
जो नहीं जानतीं नाम अपना
पर चप्पे-चप्पे पर
अपनी पहचान छोड़ देती हैं
वो औरतें
शाम ढले यादों के
कुछ नोट
छिपा देती हैं सूरज की
जेब में
और कुछ रेजगारियाँ
सपनों की,
चाँद की गुल्लक में
डाल आती हैं…

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