‘Badan Se Poori Aankh Hai Meri’, a nazm by Sara Shagufta

जाओ जा-नमाज़ से अपनी पसंद की दुआ उठा लो
हर रंग की दुआ मैं माँग चुकी
बाग़बाँ दिल का बीज तेरे पास भी न होगा
देख धुएँ में आग कैसे लगती है
मेरे पैरहन की तपिश मिट्टी कैसे जलाती है
बदन से पूरी आँख है मेरी
निगाह जोतने की ज़रूरत ही क्या पड़ी है
मेरी बारिशों के तीन रंग हैं
टूटी कमान पे एक निशान ख़ता का पड़ा है
हम चाहें तो सूरज हमारी रोटी पकाए
और हम सूरज को तंदूर करें
फ़ैसला चुका दिया ख़ता अपनी भूल गए
नज़्र करने आए थे चुटकी भर आँख
आँख तेरी गलियों में तो बाज़ार हैं
ज़मीन आँख छोड़ कर समुंदर में सो रही
जंगल तो सिर्फ़ तलाश है
घर तो काएनात के पिछवाड़े ही रह गया
शिकार कमान में फँस-फँस कर मरा
तुम कैसे शिकारी
आँखें तेवरों से जल रही हैं
जिस्म ज़िंदगी की मुलाज़मत में है
तन्हाई कश्कोल है
हम ने आँखों से शमशीर खींची
और रुख़्सत की तस्वीर बनाई
रात गोद में सुलाई
और चाँद का जूता बनवाया
हम ने राह में अपने पैरों को जना…

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सारा शगुफ़्ता
(31 अक्टूबर 1954 - 4 जून 1984) सारा शगुफ़्ता पाकिस्तान की एक बनेज़ीर शायरा थीं। 1980 में जब वह पहली और आख़िरी बार भारत आयी थीं तो दिल्ली के अदबी हल्क़ों में उनकी आमद से काफ़ी हलचल मच गयी थी। वह आम औरतों की तरह की औरत नहीं थीं। दिल्ली के कॉफी हाउस मोहनसिंह प्लेस में मर्दों के बीच बैठकर वह विभिन्न विषयों पर बहस करती थीं। बात-बात पर क़हक़हे लगाती थीं। पर्दे की सख़्त मुख़ालिफ़त करती थीं और नारी स्वतन्त्रता के लिए आवाज़ बुलन्द करती थीं। यही नहीं वह आम शायरात की तरह शायरी भी नहीं करती थीं। ग़ज़लें लिखना और सुनना उन्हें बिल्कुल पसन्द न था। छन्द और लयवाली नज़्मों से भी उन्हें कोई लगाव नहीं था। वह उर्दू की पहली ‘ऐंग्री यंग पोएट्स’ थीं और ऐंगरनैस उनकी कविता की पहली और आख़िरी पहचान कही जा सकती है।