एक-दूसरे से हैं कितने दूर कि जैसे
बीच सिन्धु है, एक देश के शैल-कूल पर खड़ा हुआ मैं
और दूसरे देश-तीर पर खड़ी हुईं तुम।
फिर भी हविस कि ज़रा चुरा लें
एक-दूसरे की हलकी-सी झलक ही सही।
लेकिन
ख़ुद को और दूसरे को झुठलाने की तरकीबें
यानी खुलकर दर्शन के यत्नों की इच्छा
गहरी-गहरी किसी क़ब्र में ठूँस-ठाँस दी।
यानी यदि मैं आते-जाते दीख पड़ूँ तो
अख़बारों में अमरीकी वक्तव्यों पर डोलेंगीं नज़रें
और कि यदि तुम दीख पड़ो तो
गहन दार्शनिक संन्यासी-सा मैं डोलूँगा
किन्तु तुम्हारे हट जाने पर
एक बार
वह गौरवमयी पीठ देखूँगा
जिसके तल पर हिलती है
अभिमानी वेणी।
आते-जाते रोज़ यही मिथ्या विराग
फिर और किसी दिन जाने क्यों
झगड़े की आ जाती है नौबत
मैं टेबल के पास तुम्हारे कुछ ऐसी-वैसी कह देता
बात बहुत बढ़ जाती यदि वह यों सम्भल न जाती
यानी जाकर अन्य जनों के पास
पहुँच चुपचाप लौट ही आती है वह।
सभी जानते—
मेरे बारे में ख़याल हैं बुरे तुम्हारे
और तुम्हारे बारे में मैं सबसे ही कह चुका कभी का।
यानी झगड़ा—
तनी हुई भौंहे, सतर्क नासा की रेखा
मुँदे होठ औ’ गम्भीर चेहरा
हल्की लाली लिए कि मैंने ही देखा है कितनी बार
अरे मिथ्या का लेखा
झगड़ा-वगड़ा सभी फ़ालतू बातें हैं ये
तुम्हीं जानती हो कि मात्र यह गहरा परदा
ढाँक न पाता पल के फूलों की किरनों को
कैसे समझाओगी मन को
मैं विराग की राख रमाये
कैसे समझाऊँगा मन को
क्योंकि तुम्हारा सहज देख मुख
मेरे मन में तिर आती है एक पंक्ति लघु
‘तुम पसन्द हो, अच्छी लगती हो, प्यारी हो’
बस यही पंक्ति गड़बड़ करती है
नहीं चाहता भेद खुले यह तुम पर छिन भी
लेकिन तुम गड़बड़ कर देतीं
समय तुम्हारे क्रोध-विरागादि मूर्खताएँ निकालकर
मन में भर देता है निष्पक्ष उजाला
जिसमें दिखती है मेरी तस्वीर
कि अच्छी न हो किन्तु वह बुरी भी नहीं
और कि तुम मुस्का देती हो
कभी दबे स्वर से पुकारती खुले आम
ले मेरा नाम कि ऐसे
मानो ठोस विजड शीतल यथार्थ के
लम्बे-चौड़े स्तर पर
बहुत ज़रूरी बातें ही तो बुला रही हों।
बहुत धूर्त हो!
सबकी आँखों के सम्मुख कुछ काम-काज की ठण्डी बातें
इतना जतला देतीं ग़ुस्सा शान्त हो गया
लेकिन कॉमा, पूर्ण-विरामों के मारे
वह लम्बा डैश छूट जाता है
ब्रैकेट ख़ाली-ख़ाली रहते।
फिर भी अन्यमनस्क, उदास एक-दूसरे से रहते हम
मानो हैं ही नहीं, सिर्फ़ अख़बारों में हैं।
फिर भी अकस्मात् हो जाता
एक भयनाक काण्ड हाशियों में वह खुल जाता है
लम्बी लकीर नज़रों की आती एक उधर से
मेरी आँखों की रेखा स्थिर हो जाती आँखों में तुम्हारी
और देखते ही रहते हम
खोये-खोये
मानो गिरफ़्तार हों नज़रों में यों रमकर।
क़ैदी-बन्दी सब कुछ कहा
बाँहों में ही गिरफ़्तार हम नहीं हुए बस,
इतनी कसर रह गयी बाक़ी
जो अच्छा ही हुआ कि बस हम
लैला-मजनूँ होने से ही तो डरते हैं
भद्दी बात प्रेम का होना
रद्दी चीज़ कि फेंको उसकी रद्दी की टोकरी खुली है।
वाहियात यह धन्धा।
छोड़ो।
जीवन के ऊष्मामय पल से यों मुँह मोड़ो
जिससे पापी अपराधी बदमाश न हम कहलाएँ
चर्चा का हम विषय क्यों बनें!
इसीलिए हम करें भ्रूणहत्या भावों की
भद्र पुरुष बन जाएँ
यही एक निष्कर्ष कि निर्णय
तुमने किया कि मैंने थामा
हम ऐसे बेकार कि उल्टा पहनते हैं अपना पैजामा।
किन्तु समझ में नहीं आ सका
क्यों आती है नीली साड़ीवाली छाया
मेरे कमरे में आकर मँडराती-सी है
कभी बैठती कुर्सी पर छिन
फिर उड़ जाती।
और सोचता हूँ कि तुम्हारे मौन अकेले में आता है
क्या कोई आकार एक कोने में टिककर
और बोलता है कुछ मेरी-जैसी बातें!
आश्चर्य होगा यदि ऐसा सचमुच हो तो
किन्तु नहीं, यह मेरा भ्रम है
किन्तु आज की कपूर-शीतल
सन्ध्या का समीर जब था,
वासन्तिक मदिरा की तल्ख़ी की लकीर-सी
तब तुम एक किसी के घर से
बाहर निकली थीं कि मुझे देखा था तुमने
नज़र न पायीं हटा कि चिपकी ही रह गयीं निगाहें गहरी
मेरी आँखें लगातार एकतार देखती ही रह गयीं युगों तक
और सोचता था कि धृष्टता पर मेरी तुम ग़ुस्सा होंगीं
इतने में देखी मैंने मुस्कान गुँथी-सी
होंठों पर खिल गयीं विभाएँ पहचानी-सी
आँखों में परिचय की गहरी सहज नमस्ते
मेरे होंठों पर तुरन्त मुस्कानों की चुपचाप नमस्ते।
ओझल हो जाने पर पाया
यदि मैं तुमको ठहरा लेता
और पूछता ‘यहीं कहीं रहती हो?’ आदि-आदि
तो कितना अच्छा होता!
अब सब झगड़ा निपट चुका है
मेरे हिय में याद रहेगा मन की निर्मलता का उत्तर
प्रत्युत्तर यह।
याद रहोगी तुम, भूलूँगा नहीं तुम्हारा ग़ुस्सा
तने-तने रहने की बातें
प्यारा हूँ मैं नहीं तुम्हारा, फिर भी प्रिय हूँ
जैसी तुम मुझको प्रिय हो
मात्र एक प्रियता का नाता यदि चाहो तो
उसमें सारा विश्व समाता यदि चाहो तो
मैं यदि तुमको भाता हूँ तो
विश्व विजय कर लिया एक पल ही में मैंने
उपन्यास के किसी पात्र में
तुमको गूँथूँगा पाऊँगा
हाँ! पत्र द्वारा तुमको लिख दूँगा यह मैं
भूला बिल्कुल नहीं तुम्हें मैं।
राहगीर को जैसे साथी मिल जाता है
बंजारे को जैसे गाहक
पण्डित को जैसे लघु सिद्धान्तकौमुदी मिलती
वैसे तुम मिल चुकीं मुझे बस इतना काफ़ी
भूल-चूक की माफ़ी!
साथी! राम राम! मैं चला
कि फिर हम ऐसे ही चौराहों पर फिर कभी
मिलेंगे।
ज़रूर होगी भेंट
बिदा दो!
नम्र नमस्ते!
मुक्तिबोध की कविता 'तुम्हारा पत्र आया'