एक सज्जन बनारस पहुँचे। स्टेशन पर उतरे ही थे कि एक लड़का दौड़ता आया।
“मामाजी! मामाजी!”, लड़के ने लपककर चरण छूए।
वे पहचाने नहीं। बोले, “तुम कौन?”
“मैं मुन्ना। आप पहचाने नहीं मुझे?”
“मुन्ना?” वे सोचने लगे।
“हाँ, मुन्ना। भूल गए आप मामाजी! ख़ैर, कोई बात नहीं, इतने साल भी तो हो गए।”
“तुम यहाँ कैसे?”
“मैं आजकल यहीं हूँ।”
“अच्छा।”
“हाँ।”
मामाजी अपने भांजे के साथ बनारस घूमने लगे। चलो, कोई साथ तो मिला। कभी इस मन्दिर, कभी उस मन्दिर।
फिर पहुँचे गंगाघाट। सोचा, नहा लें।
“मुन्ना, नहा लें?”
“ज़रूर नहाइए मामाजी! बनारस आए हैं और नहाएँगे नहीं, यह कैसे हो सकता है?”
मामाजी ने गंगा में डुबकी लगायी। हर-हर गंगे।
बाहर निकले तो सामान ग़ायब, कपड़े ग़ायब! लड़का… मुन्ना भी ग़ायब!
“मुन्ना… ए मुन्ना!”
मगर मुन्ना वहाँ हो तो मिले। वे तौलिया लपेटकर खड़े हैं।
“क्यों भाई साहब, आपने मुन्ना को देखा है?”
“कौन मुन्ना?”
“वही जिसके हम मामा हैं।”
“मैं समझा नहीं।”
“अरे, हम जिसके मामा हैं, वो मुन्ना।”
वे तौलिया लपेटे यहाँ से वहाँ दौड़ते रहे। मुन्ना नहीं मिला।
भारतीय नागरिक और भारतीय वोटर के नाते हमारी यही स्थिति है मित्रो! चुनाव के मौसम में कोई आता है और हमारे चरणों में गिर जाता है। मुझे नहीं पहचाना? मैं चुनाव का उम्मीदवार। होनेवाला एम.पी.। मुझे नहीं पहचाना? आप प्रजातंत्र की गंगा में डुबकी लगाते हैं। बाहर निकलने पर आप देखते हैं कि वह शख़्स जो कल आपके चरण छूता था, आपका वोट लेकर ग़ायब हो गया। वोटों की पूरी पेटी लेकर भाग गया।
समस्याओं के घाट पर हम तौलिया लपेटे खड़े हैं। सबसे पूछ रहे हैं—क्यों साहब, वह कहीं आपको नज़र आया? अरे वही, जिसके हम वोटर हैं। वही, जिसके हम मामा हैं।
पाँच साल इसी तरह तौलिया लपेटे, घाट पर खड़े बीत जाते हैं।
शरद जोशी का व्यंग्य 'आलोचना'