सुबह की धूप सेंक रहा हूँ, सोच रहा हूँ काश मन की शिकायतों का बोझ अगर पिघल जाता तो कितना सुंदर होता। एक घेरा जो तोड़ा जा सकता है, वहाँ पहुँचकर मन अपने मज़बूत हाथों से क्यों नहीं ढहा देता वो दीवार। उसी पार तो हो तुम… मुँह फेरे…
दीवार के उस पार कभी लगता है तुम दीवार की ओट से टिककर मुझे ही सुन रही हो। कभी-कभी लगता है दीवार से दूर नयी दुनिया बना रही हो, ‘उदास होकर’ या ‘हँसकर’ के बीच मेरा स्वार्थी मन चुनता है उस वक़्त तुम्हारी उदासी। क्योंकि उस दुनिया की तुम्हारी हँसी में मैं ग़ैरमौजूद हूँ, और मेरा मन अभी निस्वार्थ प्रेम को स्वीकारना सीखा नहीं है। मैं हार जाता हूँ, गिर जाता हूँ औंधे मुँह उस आदर्श प्रेम तक पहुँचते-पहुँचते।
अगर दीवार के उस जानिब हो तो धीमें से आवाज़ दो न! मैं दीवार से दूर कभी नहीं जाता… कभी-कभी वहीं थककर बैठ जाता हूँ।
जब तक दीवार तोड़कर तुम्हें गले लगा लेने की हिम्मत नहीं होती, आओ इस सुबह की धूप में दीवार के सहारे एक सीढ़ी तो लगा लें। अपनी-अपनी दुनिया बनाने से पहले, कभी साथ बनायी दुनिया को छू लें, उँगलियों से…
बचपन में एक बर्तन में झाग तैयार कर, उसमें हवा फूँककर, बड़ा-सा बुलबुला उड़ाया करते थे, और हवा में उड़ते उस बुलबुले को जैसे ही उँगलियों से छूते, वो फूटकर ग़ायब हो जाता। हमारी शिकायतों का बुलबुला भी उसी तरह फूट जाएगा, प्रेम की उँगलियों से छूते ही। और हमारे मध्य होगा उन शिकायतों का छीटा जिसे अपनी तलहटी से पोंछ लेंगे… आलिंगन से ठीक पहले…
आओ इस गुनगुनी धूप में एक-दूसरे से पीठ टिकाए सुनें एक-दूसरे का मौन जो बह रहा है रीढ़ की हड्डियों में।
सूखे बिखरे पत्तों में चुनें सबसे हरा पत्ता जिसने अभी भी जीवन के प्रेम में बचा रखा है ख़ुद को…!
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चीज़ें बदल रही थीं, और बार-बार वह स्मृति में लौटता है जहाँ से सफ़र शुरू हुआ था।
वो किस बात पर दुःखी था, उस बदलाव से जिसे उसने जिया है, और अब नहीं जी पाएगा या उस हाथ के छूट जाने से जिसने थामते वक़्त कहा था, इसकी जकड़ में मैं आज़ाद महसूस करती हूँ, और अब उसका दम घुटने लगा है।
पर छूट गए हाथ से ज़्यादा दुखता है छूटते हुए हाथ को देखना, जिसे थाम लेने की सम्भावना ख़त्म हो रही है। जैसे बालू के ढेर से बने घर को ढहने से बचाने के लिए उसे छूना भर उसे और जल्दी ख़त्म कर सकता है। ऐसे वक़्त में जीवन का नियम कहता है—उसे टूटते भर देखो, बचा पाने की कोशिश पर भी वह नहीं बचेगा। पर इंसान का मन नहीं मानता है, वह हाथ बढ़ाता है, और असफल हो जाता है।
फिर क्या हुआ ऐसा कि उसका दम घुटने लगा? वो बार-बार ख़ुद से सवाल करता जा रहा है।
कब तक ख़ुद को दोष देते रहोगे, आईने के उस पार से आवाज़ आयी…
हम अक्सर अपने अकेलेपन से ऊब जाते हैं तो किसी का साथ खोजते हैं और मिले साथ के कंधे पर सिर रखकर शुक्रगुज़ार होते हैं। पर ज्यों ज्यों हमारे आसपास भीड़ बढ़ती है, हम कंधे बदल देते हैं। हम उस अकेलेपन को भूल जाते हैं जो दम घोंट रहा था और किसी के बाँहों की जकड़ ने आज़ाद किया था, और समय बदल जाता है इक रोज़ और वही बाँहें हमारा दम घोंटने लगती हैं।
इस इंसानी मन की कई परतें हैं, एक के बाद एक नयी परत सामने आ जाती है…
हाथ छूट जाएगा यह सत्य जानते हुए भी हम हाथ पकड़ लेते हैं और दुःखी हो लेते हैं…
जीवन क्रूर है या मज़ाक़, इस पहेली को सुलझाते हुए हँस रहा है वह, उसके कहे सच और झूठ को हथेलियों पर छोड़ दिया है, उस हवा के इंतज़ार में, जो बहा ले जाएगी दूर…
वह रो लेना चाहता है…
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मिलना अकस्मात था, बिछड़ने का भी ठीक-ठीक कोई कारण नहीं बताया, जैसे पहली दफ़ा कोई चाय पर मिला और उठकर जाते ही फिर कभी नहीं मिला।
बहुत कुछ कहने से ज़्यादा, कहने की चाह रही। नहीं कहा गया से ज़्यादा दुखा उस चाह का ख़ाली रह जाना, छटपटाहट ठीक वैसे जैसे मछली को पानी से बाहर निकाल दिया गया, जैसे भूख से बिलबिलाता बच्चा और स्तन में बूँद-भर दूध नहीं, जैसे किसी ने आलिंगन के लिए बाँहें फैलायी हों और कोई अचानक कहे—माफ़ करना, मुझे किसी और से प्रेम है।
कभी-कभी भ्रम में जीवन सबसे सुखद होता है, आँख में नींद झाँक रही हो कब से और एक मखमली बिस्तर मिल जाए का सुख… जैसे ठंड में रज़ाई मिल जाने का सुख, ख़ूब प्यास लगने के बाद, लोटा-भर ठंडा पानी मिल जाने का सुख।
‘तुम्हें मुझसे प्रेम था’ का सुखद भ्रम मेरे लिए जैसे नवम्बर की पहली धूप बीनना था… सर्दी की चाय में अदरक के स्वाद का कंठ से टकराना… रात की प्लेलिस्ट में सॉफ़्ट जैज़ का अचानक बज जाना…
अगर भ्रम न हो तो ज़िन्दगी कितनी रूखी जान पड़ेगी, जैसे तुम्हें मुझसे प्रेम नहीं का सच, रूखी हवा से भी ज़्यादा रूखा… कि जैसे किसी ने सूखी चमड़ी पर नुकीला पत्थर रगड़ दिया हो।
एक गाना आज चाय बनाते-बनाते गुनगुना रहा था—चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों…
शायद फिर एक-दूसरे को जानने की इच्छा से लबालब… पूछें… कैसे हो?
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कई बार हम जीवन में एक लम्बा समय उस अपराध बोध में बिता देते हैं, जिससे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं होता… जिन ग़लतियों के लिए हम ख़ुद को ज़िम्मेदार ठहरा कोसते रहे, दरअसल उसके लिए आप अकेले ज़िम्मेदार नहीं थे।
किसी ने आपका साथ माँगा, आपने हाथ आगे बढ़ा खींच लिया उसे अपनी ओर, फिर उसने कहा—हाथ दुखता है इस जकड़ से। आपने छोड़ दिया। उसने कहा—भीड़ के शोर से सिर दुखता है। आपने अपने एकांत का मलहम उसके सिर पर लगाया। एक रोज़ उसे उसका अकेलापन काटने दौड़ा, आपने अपनी मौजूदगी से भर दिया उसका अकेलापन। उसने कहा, अब ऊब लगती है। आप उठकर जाने लगे… और जब ग़लतियों का हिसाब हुआ तो उस रोज़ उठकर जाने की सज़ा आपके खाते में आयी… आपने क्षमा माँगी, ख़ुद को उस अपराध से मुक्त नहीं कर सके… दीमक की तरह चाटता रहा यह अपराधबोध, करता रहा हृदय खोखला, और पाया एक उदासीन जीवन।
वह रिश्ते में कभी अपनी ग़लतियों की, तो कभी दूसरे की ग़लतियों की मरम्मत कर उसे ठीक करने में लगा रहा।
वह उन बिखरे शीशे को बीन रहा, जोड़ रहा जो उसके हाथों से गिरकर नहीं टूटे थे, हाथ में चुभे काँच के टुकड़े से लहूलुहान अपने हाथों को पोंछ लेता है अपने ही अकेलेपन में।
हम कभी-कभी अपने अकेलेपन से डरकर वहाँ होते हैं, जहाँ आपकी मौजूदगी महत्वहीन है।
तत्क्षण हमें उस कमरे से बाहर आ जाना चाहिए जहाँ किसी ने कहा हो—न आते तो बेहतर था!
प्रेम होना नियति है, पर प्रेम निभाना आपका चयन।
हम कभी-कभी उस मोड़ पर खड़े रहकर इंतज़ार कर रहे होते हैं जहाँ कोई नहीं आने वाला। इस इंतज़ार को छोड़िए, वहाँ पहुँचिए जहाँ कोई आपके इंतज़ार में है।
अंत सुखद है या दुखद… अंत का सत्य जेब में रख निकल पड़िए उन यात्राओं पर जहाँ आप तब भी थे, जब कोई नहीं था…
अलविदा मेरे/मेरी दोस्त रख दीजिए उन हथेलियों पर…
काली घनी रात बीतते ही, एक अलहदा सुबह आपके इंतज़ार में है… जहाँ कोई अपराधबोध नहीं है।
गौरव गुप्ता की इंस्टा डायरी