तुम्हारा सम, मेरा विषम है
तुम मिले अब तक नहीं मुझसे
चार दशक से हम भाई-बहन हैं
तुम माँ के बेटे हो
मैं बेटी हूँ बाग़ी
हम दोनों के धर्म कितने अलग हैं
जो सामान्य है तुम्हारे लिए
मेरे लिए भेदभाव है
तुम्हारा सम, मेरा विषम है
मिलोगे कॉमरेड खुले खेत में
कि दीवारें ये
घर की हमें मिलने नहीं देतीं
ख़ालिस सच्चाई से रोमांटिक कुछ भी नहीं
मेरे दोस्त कौन होंगे
तय तो मैं ही करूँगी
मुझे पसंद नहीं
अगर चिकने चेहरे
तो तुम क्या करोगे?
ब्रांडेड कपड़े और विलासिता से अलंकृत यह जीवन
और यह उफ़-सी नफ़ीसी तुम्हारी
मेरी नज़र को रुचती ही नहीं
तो भी तुम ज़िद्द करोगे
यह ठीक बात नहीं
जात, बच्चे, पति, पिता
और पता पूछने वाले लोग अजीब से होते हैं
शहर वालों से डर बहुत लगता है मुझे
कि मेरी यादों में मेरा
शहर वाचाल और हिंसक
बहुत है
मुझे मेरी चीज़ों पर गर्व भी नहीं वैसा
जैसा तुम कर लेते हो देश, धर्म, ज़मीन, जाति
और शहर पर अपने
नम्र लोगों के साथ गुज़ारकर
एक गुम-सी मुलाक़ात
में कितने दौर का सच
जान जाती हूँ
वह कम बोलता है
पर सच बोलता है
वह देखता है खिड़की से बाहर
और कोई एक नज़्म भी बुदबुदाता है कभी-कभी
वह बातों से अपनी
पोंछ देता है हर ऐसी-वैसी छोटी सोच को
वाचाल भी नहीं, न कोई हिंसा
वह आक्रमक भी नहीं है
दुबला-पतला
साधारण-सी क़द-काठी
सलीक़े से अलविदा कहता है
मिले वर्षों गुज़र गए
न जात पूछी
न पूछा उसने
कितनी पढ़ी हो?
मेरे ख़्वाब में खुरदरे चेहरे आते हैं
ख़ालिस सच्चाई से रोमांटिक कुछ भी नहीं यहाँ।
एडिंटिंग
एडिंटिंग ज़िन्दगी की ज़रूरी
बहुत है दोस्तो
ये काम फटाफट करते रहें हम
प्रकाशन से पूर्व ही सब ठीक करना है
कि मेरा दूसरा संस्करण सम्भव ही नहीं
मज़ेदार बात तो यह है कि
प्रकाशित होने के बाद
कैसी हुई आलोचना
मुझे छोड़कर सुनेगा
हर अप्रकाशित आदमी
कई पांडुलिपियाँ गर्भ में रहीं गुदगुदाती
जन्म के बाद ही शुरू हो गया
काम उनकी एडिंटिंग का!
पालतू, ब्रांडेड कविताएँ
वे पालतू कविताएँ हैं
उन्होंने पगहा बाँध रखा है
उन्हें दूहा जा सकता है
या काटकर बनाया जा सकता है गोश्त
या खेत में जोत दिया जा सकता है उनको
वे ग़ुलाम हैं
किसी की सम्पत्ति हैं
जबकि कविता स्वभाव से आज़ाद होती है
वह कविता नहीं हो सकती
कुछ और ही है
कविताएँ पगहा या ब्रांड मार्क के साथ नहीं आतीं
बिकने वाली चीज़ों पर ब्रांड लगा होता है
और ग़ुलामों के गले में लगा होता है पगहा।
ऊँचाई पर वह अब नंगा खड़ा है
कई बादलों को सिलकर गिरा दिया
कोई नंगा, सूखा
फटकर रोया था
ऊँचाई पर वह
अब नंगा खड़ा है
बनकर नीली साफ़ खुली छतरी।
ये उम्र का दशक चौथा है
मैं डरती हूँ
मिट्टी से
मैं दुमंज़िले
से उतरी नहीं ख़ाली पाँव
अब तक
ये उम्र का दशक चौथा है
निगेटिव
स्वप्न आँखों पर फ़िल्म-सी चढ़ी
लम्बी दौड़ तक रही निगेटिव
लगा वक़्त पाॅजिटिव होने में
आज भी ब्लैक एंड व्हाइट ही हैं
सबकुछ है तस्वीरों में
बस रंग ही नहीं
ज़मीन आईना दिखा रही है
कल खेत में धान के देखा
कई बिल
खेत में खड़े होकर
ले नहीं पायी
तस्वीर कोई
मैं जानती ही नहीं
ये बिल
चूहे या साँप का है?
पढ़ी किताबों के ज्ञान खेत
ज़मीन आईना दिखा रही है
लोग सोचेंगे!
लोग क्या कहेंगे?
मैं सोचती ही नहीं
लोग क्या सोचेंगे?
लोग सोचेंगे!
अगर सोच पाते
तो आलम ये नहीं होता।
कौन-सी सड़क
कौन-सी सड़क सीधे
जाती है किताबों की दुकान तक?
पैसे इतने कहाँ कि ख़रीद सकूँ
ये किताबें सारी
अचरे में हमेशा गिरी है मेरी
सिंदूर, बिंदी, चावल और दूब हरी
हमेशा ग्यारह और इक्यावन रुपये में
ख़रीदनी पड़ी अगरबत्ती और भोग ही
खोइचा से चुराकर पैसा
रखा है बगुली/बटुआ में
कौन-सी सड़क सीधे
जाती है किताबों की दुकान तक?
डूब रही हूँ
मैं डूब रही हूँ
एक तालाब में
छोटे-से तालाब में
जिसके बग़ल में
एक स्कूल है
थोड़ी दूर पर एक मंदिर
न मैं पढ़ी-लिखी हूँ
न धार्मिक
मौत तय है
मुझे तैरना नहीं आता
तैरना जाने बिना
तालाब में कूदना
वह भी उस दिन
जब स्कूल बंद
और मंदिर खुला हो
मौत को हकार
देना-भर है
मौत को निमंत्रण देना
स्कूल के रहते
दुनिया की सबसे अजीब चीज़ है।
घर से निकलीं चिड़ियाँ
शीत से उबर रहा था मौसम
हिमाच्छादित खड़े पहाड़ों
से झाँक रहे हैं प्रस्तर
सुगबुगाती धूप में
दाना चुगती चिड़ियाँ पहुँच
गयी हैं पटरियों पर
रेल से प्रकम्पित आज पहाड़ भी
कि पटरियों पर चलती रेलों
के पहियों में ख़ून लगा है
घर से निकली
पढ़ी-लिखी
कई चिड़ियों के!
मैं शून्य हूँ
मैं शून्य हूँ
और सारे स्वांग
जीवन के अन्य अंक
घड़ी टावर के नीचे
सिनागाॅग में
नीले सिरामिक टाईलों
और बेल्जियम के झाड़फानूसों
के बीच लेकर खड़ी हूँ
तुम्हारी दस कविताओं को
उसी तरह
जैसे यहूदी वृद्ध के मरने पर
बुलाए जाते हैं दस और यहूदी
अंतिम क्रियाकर्म से ठीक पहले
कोच्चि फ़ोर्ट के पास
समुद्र के किनारे
आओगे न
वापस लेने अपनी शेष जीवित कविताएँ
मृत कविताओं के क्रियाकर्म से ठीक पहले
रिक्त आँखों देखेंगी
निवृत्त कविताओं का श्राद्ध
शब्दविहीन तर्पण छंद का
अंतिम सत्य की निःशब्द घोषणा।
अनामिका अनु की कविताएँ 'लड़कियाँ जो दुर्ग होती हैं'