देखता हूँ
पहाड़ से उतरकर
आकर शहर
हर कोई मेरी ख़ातिर
कुछ-न-कुछ करने में है व्यस्त
कोई लिख रहा है—
हमारी लड़खड़ाती ज़िन्दगी के बारे में
पी. साईनाथ की तरह ‘एवरीबॉडी लव्स ए गुड ड्रॉउट’
कोई लिख रहा है रामशरण जोशी की तरह
हमारे पूर्वजों की बंधुआ जीवन की कहानी
‘आदमी बैल और सपने’ जैसी किताब
तो कोई बना रहा है
‘कस्तूरी’, ‘मृगया’, ‘कोड़ा राजी’
और ‘फ़ायर बिदिन’ जैसी फिल्में
वेरियर एल्विन या शरतचंद्र राय की तरह
कुछ मानव विज्ञानी
लिख चुके हैं हमारे रीति-रिवाजों के बारे में
हमारी जीवन कला के बारे में
हमारे दैनंदिन जीवन के बारे में
हमारे विश्वासों, अंधविश्वासों के बारे में,
अब कुछ कर रहे हैं
इस लेखन का खंडन-मंडन
हमारी संघर्ष गाथाओं को कुछ लोग
बना रहे हैं उपन्यासों, कहानियों,
लेखों का विषय—महाश्वेता की तरह
कल्याणकारी संस्थाएँ, चाहे वे हिंदू हों या ईसाई
या और कोई
हमारी भलाई में जुड़ी होने का करती हैं दावा
पार्टियाँ हों दक्षिण, वाम या मध्यमार्गी
सदा करती हैं हमारे हित की बात
हम जादूगोड़ा में गल रहे हों
नर्मदा में डूब रहे हों
उड़ीसा में चाहे भूखे मर रहे हों
या देश में कहीं गालियाँ या गोलियों खाकर मर रहे हों
या दामोदर का पी रहे हों गंदा पानी
बताया जाता है
हमारे लिए कहीं-न-कहीं विकास का कार्य है प्रगति पर
असंतुलित, विनाशकारी इस विकास
के विरोध में
निकाले जाते हैं जुलूस
जुलूसों में खड़े देखते हैं बग़ल में अपने
कभी मेधा, रमणिका, अरुंधती तो कभी ब्रह्मदेव
हमारे ही गाँव-घरों में बचाने की ख़ातिर—धरती का नंगापन
चलते हैं पेड़ बचाने के आंदोलन
धरती बनती रहती है फिर भी बंजर
इसी बीच, लेकिन
कोई हमारी टंगिया, कुमनी, हल, कुदाल, तीर, धनुष
धुमकुरिया, घोटुल का अध्ययन करता
हमारे कंधे की सवारी करता बन जाता है अंतरराष्ट्रीय विद्वान्
हम तब भी त्रस्त, उत्पीड़ित
बहसों के प्रेशर कुकर में उबलते सपने हमारे
कर दिए जाते हैं ठंडे संसद के
शीत ताप नियंत्रित सभाकक्षों में
संयुक्त राष्ट्र संघ में भी दुर्दशा की
होती है चर्चा हमारी
राजधानी में भी
नोबेल शांति पुरस्कार विजेता—रिगोवेर्ता मेंचू हैं आती
ऐसे किसी सम्मेलन में भाग लेने दिल्ली
कुछ अख़बारों में ही होती है चर्चा, कुछ में नहीं
चूँकि यह हमारे भूखों मरने की नहीं
ख़बर है एकजुट होने की
अतः, यह राष्ट्रीय समाचार बनता नहीं
सरकारी नुमाइंदे बताते थकते नहीं
संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठकों में
भारत में नहीं हैं, हम कहीं
और एक दिन हमारा अपनापन चुरा लेता है
हमारे ही पड़ोस का कोई आदमी
धँसते जाते हैं अपमान और ग़रीबी के गर्त में
भले कुमार सुरेश सिंह लिखते हैं किताबें दर किताबें
इतिहास में खोजते हमें
तब भी हैं लेकिन हम हाशिए पर
हैं एहसानमंद, हैं शुक्रगुज़ार
हम सभी विद्वानों, विचारकों, लेखकों, कलाकारों, पर्यावरणविदों
पत्रकारों, फ़िल्मकारों, चिकित्सा विज्ञानियों के
कि—
उन्होंने की है मेहनत
हमें हाशिये से बाहर लाने के लिए
सम्मान के साथ जीने के लिए
धन्यवाद, धन्यवाद, धन्यवाद!
मगर विवश, बेबस क्यों हम?
ख़ामोश, उबलते—
‘आक्रोश’ के ‘लाहन्या’ की तरह
बहन का गला काटते अब भी
मेरे विद्वान् दोस्त यह नहीं बताते
इस प्रश्न के तहख़ाने का रहस्य कौन खोलेगा?
शायद, हमारे बीच से ही कोई!
रामदयाल मुण्डा की कविताएँ