बहुत बार एक ही अवस्था से गुज़र चुकने पर लोग उसके अभ्यस्त हो जाते हैं। लेकिन गीता के साथ ऐसा नहीं है, और प्रतीक्षा करना आज भी उसके लिए ज़िन्दगी की सबसे विकट यातना है। प्रतीक्षा को लेकर वह दो भागों में बँट गई है—एक भाग निश्चिंत और निरुद्विग्न भाव से प्रतीक्षा करता है और दूसरा नस-नस को तड़का देने वाले तनाव में हर आहट पर चौंक-चौंक उठता है। इस बीच उससे कुछ नहीं होता और वह कभी घर की सफ़ाई करने लगती है और कभी किताबें-काग़ज़ इस तरह फैलाकर बैठ जाती है कि उन सबको समेटते-समेटते ही वह समय बीत जाए। जब सारे तरीक़े नाकाम हो जाते हैं तो वह बिस्तर पर जाकर चित्त लेट जाती है और तकिया मुँह पर रखकर बेहोश-सी पड़ी रहती है, कान नीचे लगे रहते हैं कि अब दरवाज़े पर खड़-खड़ होगी।

इतना समझाकर कह दिया था नंदा से कि “देखो, मैं तुम्हारे लिए बैठी रहूँगी, बाहर से कुछ खाकर मत आना और मुझे ज़्यादा देर तक भूखों मत मारना। सुना, हर्ष, देर न…”

वह ऊपर दरवाज़े पर खड़ी थी और वे सीढ़ी के बीच मोड़ पर थे। हर्ष ने नंदा की खुली कमर पर हाथ रखकर अगली सीढ़ी उतरते हुए ऊपर देखा, “अरे दीदी, तुम फ़िक्र मत करो! मैं इसे ज़्यादा देर ही नहीं लगाने दूँगा। कोई बात है भला कि तुम भूखी बैठी रहो और यह वहाँ शो-केशों में साड़ियाँ देखती रहे? अच्छा, टा-टा!” उसने सिगरेट वाला हाथ सिर के ऊपर हिलाया।

हर्ष की इस शैतानी पर नंदा मुस्करायी, दो उँगलियाँ होंठों से लगायीं और एक फ़्लाइंग किस गीता की ओर उछालकर सीढ़ियाँ उतर गई।

“दुष्ट!” गीता के मुँह से निकला। यह हर्ष बातें बनाने में तो इतना तेज़ है कि बस! वह देर तक उस जगह को ही मुग्ध भाव से देखती रही और मुस्कराती रही। सीढ़ी पर से सैंडिलों और जूतों की मिली-जुली आवाज़ नीचे फ़र्श पर पहुँच गई; दरवाज़े का पेंच खुला और खटके से बंद हो गया। ख़ुशबू का बादल वहाँ मंडराता रहा।

पिछले तीन-चार दिनों से रोज़ यही हो रहा है—दरवाज़ा खटके से बंद होता है तो दोनों की बातों और पाँवों की आवाज़ को फीते की तरह काटकर नेपथ्य में फेंक देता है। पतली-सी गली में पदचाप दूर होती जाती है, तब एकदम सड़क का शोरगुल, ट्रामों की चिचियाहट और टन-टन और बसों की घों-घों तथा कंडक्टरों की घंटियाँ सुनायी देने लगती हैं; और अचानक चौंककर गीता पाती है कि वह मुँह पोंछना छोड़कर तौलिया हाथ में लिए ही दरवाज़े पर खड़ी है। और तभी से उसकी प्रतीक्षा शुरू हो जाती है।

अब तो ऐसा लगता है, जैसे वर्षों से यही क्रम हो। कितनी जल्दी यह हर्ष उसके सामने खुल गया है, वरना उसे याद है, पहली बार उसकी हिम्मत गीता के सामने सिगरेट पीने की नहीं पड़ी थी। और अब? अब तो वह गीता के सामने ही नंदा को पकड़कर चूम लेता है। उसकी दोनों चोटियाँ पकड़कर अपनी ओर मोड़ता है और आलिंगन में बांध लेता है; और ताज़ा-ताज़ा ग़ुसलख़ाने से नहाकर निकली, अलगनी पर कपड़े फैलाती नंदा यों गीता की ओर पलकें उठाकर मुस्कराती है, जैसे किसी रहस्य की ओर संकेत कर रही हो, या शायद चुनौती दे रही हो। अब तो नंदा जितनी देर जागती है, बस गुनगुनाती रहती है, ख़ुद नहीं गाती तो उसके कमरे से रेडियो सीलोन के गाने आते रहते हैं, और उनके साथ वह अक्सर स्वर मिलाती रहती है—जाने कितने गाने याद हैं इस कमबख़्त को, शायद कलकत्ता की सारी हिंदी अंग्रेज़ी फ़िल्म देख डाली हैं इन दिनों!

जब से यह हर्ष आया है, नंदा तो जैसे बौरा उठी है। वह इस धरती पर नहीं, समय और काल से ऊपर कहीं हवा में चलती है। अब उसे ध्यान कहाँ कि कोई गीता भी है। जब वह चला जाएगा तो वही ‘गीता दी, गीता दी’ करती आगे-पीछे घूमेगी। कितनी जल्दी रंग बदलती है यह लड़की! एक मिनट नहीं लगता! कब जाएगा यह हर्ष? जाने कितने दिनों की छुट्टियाँ लेकर आया है। अभी तो दो-चार दिन जाने का कोई सिलसिला नज़र नहीं आता। हर्ष को होटल से यहाँ लाकर तो उसने अपनी ही तकलीफ़ बढ़ा ली। ये लोग सामने रहते हैं तो ऊपर से बहुत ख़ुश रहती है, इनकी हरकतों, मज़ाक़ों पर हँसती है और ख़ुद भी कभी-कभी छेड़ देती है, लेकिन भीतर कहीं एक अवसाद गाढ़ा होता चला जाता है। ईर्ष्या नहीं होती, जैसी मिस रेमंड के समय हुई थी। मिस रेमंड के समय तो उसके भीतर कोई शेरनी की तरह ख़ूँख़ार हो उठा था। हर्ष और नंदा को साथ देखकर उसे अच्छा भी लगता है, और कहीं असमर्थता का हीनता-बोध भी कोंचता रहता है…

कितने बज गए? गीता ने इस तरह मेज़ पर रखी घड़ी को चौंककर देखा, जैसे इतनी देर समय की बात को भूल गई थी, हालाँकि कलाई से खोलकर घड़ी उसने इसीलिए सामने रख दी थी कि समय का ज्ञान होता रहे। पौने दस। मेज़ पर रखे खाने को देखकर उसने सोचा, सारा खाना ठंडा हो गया। कितनी देर तक चलता है सिनेमा कि अभी तक इन लोगों का पता ही नहीं है? कहीं लेक-वेक पर भटक रहे होंगे कमर में हाथ डाले। इन लोगों के जाते ही गीता खाना बनाने में जुट गई थी और अभी आधे घंटे पहले ही उसने सारा सामान मेज़ पर लगाया था। खोका की माँ को भी इसीलिए अभी तक रोके थी कि वे आ जाएँ तो बर्तन साफ़ कर जाए, वरना फिर कल आठ बजे तक भिनकते रहेंगे। आख़िर कब तक रुकती वह? खोका की माँ ने भी पूछा था, “यह बाबू कब जाएगा? बहुत सिगरेट पीता है, जिधर देखो, उधर राख ही बिखरी रहती है। कौन है, यह इसका?”

बिना दिलचस्पी दिखाए उसने बात समाप्त कर दी— “होता कौन, आदमी है उसका। मनाने आया है। ऊपर रसोई के बर्तन और मसाले की सिल तो कम-से-कम धो जाओ… बर्तन सुबह हो जाएँगे।”

डाइनिंग-टेबल पर ही किताब खोलकर गीता अपने को उलझाए रखने की कोशिश करती रही। ऊपर लटके बल्ब की रोशनी में चीनी के बर्तन और सफ़ेद प्लास्टिक का कवर आँखों को चौंधिया दे रहे थे। अभी पोंछा गया फ़र्श चमचमा रहा था; और अंदर के कमरे में शृंगार-मेज़ के सामने लगा आधा बिस्तरा खुले दरवाज़े से दिखायी देता था और आधा शृंगार-मेज़ के शीशे में। इसी शीशे की गवाही में, इसी बिस्तरे पर उसे सारी रात जागना था। उसे ख़ुद अपने पर बेहद आश्चर्य होता है कि कैसे उसने इस सारी स्थिति को असहाय भाव से स्वीकार कर लिया है; और दोनों के इस सारे उच्छृंखल व्यवहार को सह ही नहीं लेती, बल्कि इस सारी अपमानजनक स्थिति को गले उतारे बैठी है? भयानक बात तो यह है कि उसे कोई शिकायत भी नहीं है। बाद में भले ही क्रोध आता रहे, लेकिन सामने रहते हैं तो ऐसा लगता है, जैसे दोनों छोटे-छोटे बच्चे हों और उनकी देखभाल, खाने-पीने की चिंता उसे ही करनी हो।

उसे पता है, जब दोनों आएँगे तो किस तरह एक-दूसरे को देरी के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हुए प्रवेश करेंगे, टैक्सी न मिलने या बसों की भीड़ का बहाना बनाएँगे—और कुछ नहीं तो यही कह देंगे कि बहुत बारिश हो रही थी! यह कलकत्ता इतना बड़ा शहर है कि इसके एक हिस्से में बारिश होती है और दूसरे में उसकी ख़बर भी नहीं होती। फिर किधर मेज़ पर हर्ष बैठेगा। जब वे मिचराकर खाना खाएँगे तो गीता मज़ाक़ करेगी, “आज फिर खा आए हो न?” और दोनों अपराधियों की तरह एक-दूसरे को देखकर मुस्करा उठेंगे। अपना खाना भूलकर गीता मुग्ध भाव से उन्हें देखती रहेगी। इन दोनों को एक साथ देखकर, या कल्पना करके उसका मन अजब वात्सल्य से भीग उठता है। दोनों उसके लिए प्रसन्न भाव का एक ही प्रतीक बन जाते हैं और उस क्षण, मन का स्थायी पाप-बोध अपने-आप कहीं खो जाता है। तब उसके मन में कहीं भी तो नहीं आता कि यह वही नंदा है, जिसके लिए उसने अपने सारे रिश्तेदारों से दुश्मनी मोल ली है, इधर-उधर बदनामी उठायी है, और जिसे लेकर हमेशा उसे लगता है कि वह एक निरीह लड़की की ज़िन्दगी की क़ीमत पर सुख के कुछ झूठे क्षण बटोरने की कोशिश कर रही है।

मिसेज कुंती मेहरा ने पहली बार जब उसका ज़िक्र किया था, “दीदी, एक बेचारी अकेली लड़की है, यहाँ कहीं किसी के यहाँ पड़ी है। बड़ी तकलीफ़ है वहाँ। एक फ़र्म में टाइपिस्ट है। आप तो आजकल अकेली ही हैं न, एक कमरे में रह आएगी। आपको भी साथ हो जाएगा। नहीं-नहीं, क़तई डिस्टर्ब नहीं करेगी। वह तो ख़ुद इतनी सीधी और दुखी है कि किसी से ज़्यादा बोलती ही नहीं!” इस सिफारिश के बाद जब गीता ने नंदा को देखा था, तो सचमुच वह बड़ी असहाय और सीधी लगी थी। नाक-नक़्श अच्छे थे, और रंग साफ़ था। लेकिन इसके सारे व्यवहार में एक ऐसा रूखापन और करख्तगी थी, जो चरित्र का गुण कम और छोटी जगह रहने और आत्मकेंद्रित होने का परिणाम ज़्यादा था। साड़ी का पल्ला कमर से नीचे नहीं जाता था! और कस-कसकर बाल बांधती थी और समझती थी कि यह स्मार्टनेस है।…कैसी कठिनाई और तरकीबों से गीता ने उसकी रुचियों में परिवर्तन किया था! ख़ुद चाहे सफ़ेद और सादे कपड़े ही पहने; लेकिन चाहती थी कि नंदा जब उसके साथ चले तो लोगों की निगाहें एक बार तो हटें ही नहीं। गीता के स्वभाव में सबसे पहली बार अंतर्विरोध तभी आया—अपने अनचाहे मन में एक चोर आ बैठा और उसकी सादगी की सनक पहली बार नंदा के कारण टूटी और आज वही नंदा है, स्लीवलेस काला ब्लाउज़, मोरपंखी बंगलौरी साड़ी, चप्पलों को छूता हुआ बाँह पर फैला पल्ला, साड़ी के ऊपर झूलती मोटे-मोटे सफ़ेद दानोंवाले मोतियों की माला और रोमन अंक आठ के आकार का ढीला जूड़ा… क्या फ़िगर और क्या ग्रेस! फिर आजकल तो हर्ष से सटकर चलते हुए, सपनों में उमंगती नंदा के पाँव हवा के पाँवड़ों पर मचलते रहते हैं। हल्की लिपस्टिकवाले होंठों से छुलाकर जब उसने उँगलियाँ गीता की ओर बढ़ायी थीं तो गीता के मन में कुछ ऐंठने लगा था, और एक क्षण तो तब उसे हर्ष की उपस्थिति असह्य लगी थी।

खड़ड़-खड़ड़-खड़ड़…नीचे दरवाज़े पर खड़खड़ाहट हुई तो झटके से गीता सीधी हो गई—आ गए शायद! अरे, सामने रखी किताब का, जाने कितनी देर से, वही पन्ना खुला है। किताब बंद की और मेज़ पकड़े कुर्सी से उठी, प्रतीक्षा करने लगी कि अब दरवाज़े का लेच खुलेगा, या अगर चाबी नंदा ऊपर ही भूल गई होगी तो घंटी बजाएगी। मन में आया कि नीचे जाकर ख़ुद ही दरवाज़ा खोल दे। उठी, सीढ़ी के पास आते-आते फिर खड़खड़ाहट हुई। अरे, यह तो नीचे वाली गाय है। हाँ, उसी ने सींग हिलाए होंगे। जाने किसकी गाय है, सारे दिन बस यहीं डटी रहती है और दरवाज़े के सामने ही गीला-गंदा किया करती है। हर बार आते-जाते उसे भगाया जाता है, लेकिन फिर वहीं। एक तो यों ही बरसात के कारण संकरी गली में फिसलन रहती है, फिर यह और। नंदा को इससे जाने क्यों बहुत डर लगता है। जब भी वह गीता के साथ आती है, वह हमेशा गीता को ही गाय के सामने करके आड़ में चलती है, साड़ी बचाती, पाँव जमाती, “दीदी, किसी से कहकर इसे हटवाओ न यहाँ से! जब पास से जाओ तभी सींग हिलाती है…” नंदा शिकायत करती है।

उसके बढ़ते पाँव वहीं ठिठक गए। और हाँ, अगर वे लोग ही होते तो बोस बाबू का कुत्ता तो भूँकता। कोई आए या जाए, एक बार तो इस पिद्दीराम को ज़रूर ही भूँकना चाहिए। नहीं, वे लोग नहीं है। रात में तो टैक्सी के मीटर की घंटी भी सड़क से सुनायी दे जाती है। अब गीता की समझ में ही न आया कि नीचे दरवाज़े पर चली जाए और किवाड़ खोलकर चौखटे में खड़ी-खड़ी वहीं इंतज़ार करे या फिर किताब पढ़ने की कोशिश करे। लेकिन वह अनिश्चित क़दमों से नंदा के कमरे की ओर चली आयी। दरवाज़ा आधा भिड़ा था और खुला हिस्सा हैंडलूम के चार ख़ानोंवाले भारी परदे से ढँका था। कहीं ऐसा तो नहीं है कि दोनों आज आएँ ही नहीं और उसे पहले की तरह परेशानी उठानी पड़े दुनिया-भर की। अपनी इस आशंका पर अचानक ही गीता को ऐसा विश्वास हो गया कि वह परदा हटाकर कमरे में आ गई। स्विच दबाया तो कमरा रोशनी से भर उठा—नहीं, सभी कुछ ज्यों का त्यों है, उसी तरह बिखरा और उसी तरह अव्यवस्थित। उसे अपने पर हँसी भी आयी, अगर वे लोग कुछ ले भी जाते तो उसके सामने से ही तो ले जाते। मगर नंदा पहली ही बार क्या ले गई थी? यों ही चली गई। हाँ, उसने उन्हें सीढ़ी पर जब विदा किया था, तभी कुछ लग सकता था। इस नंदा को वह डेढ़-दो साल में भी सुव्यवस्थित ढंग से रहना नहीं सिखा पायी है। उसने इधर-उधर देखा, तौलिये के स्टैंड पर वही साड़ी, ब्लाउज़ और पेटीकोटों का ढेर है, नीचे उल्टी-सीधी चप्पलों की लाइन है, हर्ष के सूटकेस पर गीला तौलिया और दो पर्स पड़े हैं, एक नई साड़ी आधी खुली रेडियो पर झूल रही है, चूड़ियों, टॉप्स और प्लास्टिक की मालाओं से भरी अटैची, बिस्तर पर मुँह बाए पड़ी है। आजकल नंदा गीता के कमरे की ड्रेसिंग-टेबल इस्तेमाल नहीं करती। दीवार से लटके लम्बे शीशे के नीचे अपनी दो संदूक़ें रख ली हैं और एक पर सारा शृंगार का सामान बिखरा है, लाल चोंच निकाले लिपस्टिक पड़ी है और कंघे में बालों का गुच्छा फँसा है…अगर हर्ष से शादी हो गई तो कैसे यह घर को सम्भाल सकेगी? नौकरानी को अपने कमरे में झाँकने नहीं देती। वह तो पाँचवें-छठे दिन गीता ख़ुद ही ज़िद करके सम्भाल जाती है उसका कमरा।

सचमुच क्या हर्ष से शादी हो जाएगी नंदा की? दीवारों की ओर असहाय भाव से देखती गीता उस स्थिति की कल्पना करने लगी, जब तीन कमरों के इस इतने बड़े फ़्लैट में नंदा नहीं होगी। आज तो जहाँ-तहाँ कलैंडरों की खूँटियों पर हैंगरों में लटके हर्ष के बुश्शर्ट और कमीज़ झूल रहे हैं। जंगले की चटखनी पर एक हैंगर फँसाया हुआ है, उस पर हर्ष के मोजे और नंदा की ब्रेसरी हैं। नंदा कैसी रच-रचकर घंटों ग़ुसलख़ाने में हर्ष के कपड़े धोती है और फिर बेदाग़ इस्तिरी करती है! कभी हर्ष के लिए चाय ला रही है, कभी नाश्ता, कभी उसका शेविंग-सामान धोने ख़ुद उठाए आ रही है, कभी बटन लगाने सुई लिए जा रही है। इसका बस चले, तो हर्ष के लिए नहाने का पानी भी यहीं ले आया करे। सबकी आँखों से बचाकर वह ‘अपने हर्ष’ को अपने तक ही रखना चाहती है। वह तो गीता इतनी सब छूट देने का वचन देकर न लायी होती तो नंदा आसानी से होटल छोड़कर थोड़े ही आती! इसी का नतीजा है कि नंदा शेर है। सारे-सारे दिन उसकी सूरत देखने के लिए गीता तरसती रहती है। आजकल आठ से पहले तो आँख ही नहीं खुलती और दिन यहाँ हो जाता है पाँच बजे। फिर जैसे-तैसे नहा-धोकर ऑफ़िस भाग जाती है। दोपहर का खाना तो हर्ष के साथ तय ही है—दोनों वहीं कहीं बाहर खा लेते हैं, साँझ को फिर या तो वहीं से कहीं कोई प्रोग्राम बन जाता है या अगर यहाँ आ गए तो थोड़ी देर चाय पर गीता की मुलाक़ात हो जाती है। वस्तुतः नंदा इस समय कपड़े इत्यादि बदलने के लिए ही आती है। इसके बाद दोनों फिर निकल जाते हैं; और गीता के पास छूट जाता है पाडडर और सेंट की ख़ुशबू का बादल, एक छोटा-सा वाक्य—”अच्छा दीदी, टा-टा!” सीढ़ियों पर उतरना, लेच का खटका, गली की पदचाप और फिर लोगों का शोर, मोटरों के हॉर्न और एक बेचैन प्रतीक्षा…

हर्ष ने तो एकाध बार कहा भी है, लेकिन नंदा ने कभी भी नहीं कहा कि चलो, दीदी, आज तुम भी हमारे साथ चली चलो सिनेमा या घूमने। हाँ, होटलवाली घटना से पहले ज़रूर ले गई थी वह खाना खिलाने स्काईरूम में, सो भी हर्ष से मिलाना था; इसलिए। उसके लिए भी ख़ुद गीता ने ही कहा था, “इतने गीत गाती है हर्ष के, अपने हर्ष से मिलाएगी नहीं, नंदन?” अब जब से हर्ष होटल से यहाँ आ गया है, तब से तो जैसे उसके अस्तित्व को ही भूल गई है। गीता अपने को टटोलने की कोशिश करती है कि इसमें क्या ग़लती उसी की है? दोनों चाहे जैसे रहें, लेकिन रहें यहीं—यह सोचकर उसने जो छूट दे दी थी, वह क्या कुछ ग़लत हो गया? फिर अपने को समझाती है कि अगर इतनी छूट नहीं देती तो निश्चय ही नंदा फिर होटल में चली जाती। इन दिनों होश में कहाँ है वह अपने। पागल हो रही है, पागल! जाने कैसे दफ़्तर में काम करती होगी! ख़ैर, अब दो-चार दिनों की ही तो बात है। आख़िर हर्ष जाएगा तो सही अपने काम पर, यहीं तो बैठा नहीं रहेगा। समझ लूँगी मुनिया को!

इस सारी झुँझलाहट-बेचैनी के ख़ून के घूँट के बावजूद, हर्ष और नंदा का उन्मुक्त व्यवहार और तन्मय विसर्जन देखकर कहीं बहुत गहरे उसे एक तृप्ति जैसी क्यों होती है, यह गीता की समझ में न पहले दिन आया था, न आज आता है…

जिस रात गीता दोनों को टैक्सी पर होटल से ले आयी, उसकी अगली सुबह की ही तो बात है। चाय का पानी खौल-खौलकर भाप बनता रहा और सुबह आठ बजे तक दोनों में कोई नहीं उठा। वह बेचैन-सी इधर-से-उधर घूमती एक-एक काम करती रही, मनाती रही कि खोका की माँ न आ जाए। सारी रात उसे नींद नहीं आयी थी, नंदा के बिना आती ही नहीं है। नंदा के कमरे का दरवाज़ा बंद नहीं था, यों ही आधे दरवाज़े पर पर्दा पड़ा था। हारकर दो-एक बार किवाड़ पर बाहर से खट-खट भी किया, “अरे नंदा, उठो भाई, हम चाय पीने को बैठे हैं।”

भीतर से बस, हल्की कुनमुनाहट और छीना-झपटी की एक आवाज़-सी ही आयी। फिर तीसरी बार नंदा ने भीतर से ही कहा, “दीदी, यहीं दे दो न, प्लीज़!”

हमेशा बिस्तर पर लेटे-लेटे ही जैसे वह कहती है इस वाक्य को, ठीक उसी तरह लेटी होगी—गीता ने अनुमान लगाया। रोज़ की तरह ही गीता ने जवाब दिया, “हम तो तेरी सेवा लिखाकर लाए हैं न, लाते हैं वहीं।”

यों भी आज तो वह उसका हर कहना मानने को मजबूर थी न! दोनों हाथों में प्याले उठाए उसने एक पाँव से भिड़े किवाड़ खोले और पीठ पर पर्दा लेकर भीतर आ गई तो झटके से हर्ष उठ बैठा और मसहरी के पल्ले ऊपर फेंककर हड़बड़ाता हुआ खड़ा होने लगा। वह नहीं चाहता था कि गीता यों उसे देखे। चारपाई से पाँव लटकाकर जल्दी-जल्दी वह चप्पलें तलाश कर ही रहा था कि लेटे-लेटे ही अंगड़ाई लेकर बदन तोड़ती नंदा ने एकदम करवट बदलकर हर्ष की कमर में बाँहें डालीं और उसे फिर बैठा लिया। गीता ने सुना, उसकी बाँह छुड़ाकर फिर उठने की कोशिश करते हुए हर्ष ने फुसफुसाकर कहा भी था, “अरे-अरे, नंदी, गीता दी आ रही हैं!”

तब बंद आँखों, अपनी पकड़ और भी कसकर उसे बैठाए रखे ही अलसाए स्वर में नंदा इतराकर बोली, “तो क्या हो गया? उन्हें पता नहीं है क्या? अमारी दीदी बहुत ग्रेट हैं, इन बातों पर ध्यान नहीं देतीं!”

डरी-डरी निगाह गीता के चेहरे पर टिकाए ही हर्ष झेंपा-सा बैठा रहा। जान-बूझकर व्यस्त बनी गीता प्यालों को घूरती ही आगे आ गई थी। स्थिति को दरगुज़र करके उसने भरसक स्वाभाविक लहजे में कहा था, “लो, चाय तो ले लो।”

उसने बिना सिर उठाए ही देखने की कोशिश की थी, हर्ष ने कमीज़ और नंदा की साड़ी का तहमद पहना था, और नंदा सिर्फ़ ब्लाउज़ और पेटीकोट में थी। उसने अब सरककर अपना सिर हर्ष की जाँघ पर रख दिया था और सिरहाने के तकिए से लेकर पाटी तक उसके घने, मुलायम, सुनहरे बाल बिखर आए थे। तब गीता को अपने-आपको सम्भाले रखना मुश्किल हो गया था। यह नंदा की रोज़ की आदत है। जब वे दोनों सोती हैं, तब भी नीचे दूधवाला दरवाज़ा खटखटाता रहता है और उठती हुई गीता की कमर बाँहों में कसकर नंदा उसकी गोद में सिर रखकर लेटी, ज़िद्दी बच्चे की तरह उसे उठने नहीं देती। इसी तरह तकिए और पाटी पर उसके सुनहरे मुलायम, घने और महीन-महीन बाल बिखरे रहते हैं। उन पर दुलार से हाथ फेरती वह ख़ुशामद से कहती रहती है, “अब उठने दे, नंदन, देख, दूधवाला गालियाँ दे रहा होगा। चला जाएगा तो तुझे चाय कहाँ से पिलाऊँगी?”

लेकिन इस तरह लेटी नंदा के केशों पर हाथ फेरने में उसे बड़ी तृप्ति मिलती है, और यह भी पता है कि नंदा को ख़ुद बड़ा अच्छा लगता है। अब यों नंदा के केशों को बिखरा देखकर उसके हाथों में वही अभ्यस्त कुलबुलाहट होने लगी… शायद हर्ष को नहीं मालूम कि नंदा को सुबह अपने केशों का दुलार कितना प्रीतिकर है।

ख़ुद उसे बहुत झेंप लग रही थी। जल्दी से हर्ष के बढ़े हाथों में दोनों प्याले देकर लौटने लगी, तभी नंदा ने पुकारा, “अरे दीदी, सुनो तो सही!”

गीता ठिठक गई तो हर्ष की गोद से बिना सिर उठाए ही ख़ुमारी-भरी आँखें खोलने की कोशिश करते हुए कहा, “दीदी, तुम्हें सचमुच बुरा लग रहा है क्या? तुम्हें मेरी क़सम, दीदी, इधर देखो न! नहीं देखोगी तो हम समझेंगे, तुम्हें अच्छा नहीं लग रहा!”

गीता ने बरबस उसकी ओर गरदन मोड़कर देखा तो उसके गालों पर अनजाने ही हँसी उमड़ आयी, “तेरी किस-किस बात का बुरा मानूँगी?”

शायद उसके स्वर में शिकायत भी थी।

“तो आप भी अपनी चाय यहीं ले आइए न, दीदी!” हर्ष अब तक चुस्त हो गया था। इस बार वह बोला।

“हाँ, हाँ, गीता दी!” नंदा ने भी ख़ुशामद की, “अपने नंदन का कहना नहीं मानोगी?”

“बड़ी कहना मनवाने वाली आयी!” गीता ने नाराज़ी का भाव दिखाकर जवाब दिया, “अभी खोका की माँ आती होगी, सो?”

लेकिन जब वह बाहर अकेली बैठी-बैठी किचन में चाय पी रही थी, तब भी यही सवाल उसके मन में था कि वह इस ‘अनाचार’ का विरोध क्यों नहीं कर पा रही है। उल्टे उसे एक तृप्त सार्थकता की अनुभूति क्यों होती है कि वह किसी तन्मय-सुख की साक्षी है? अपनी उपस्थिति में भी उनके बेझिझक और अंतरंग व्यवहार को देखकर उदारता का यह संतोष क्यों होता है कि वह किसी की चरम प्रसन्नता में बाधक नहीं है। तब से वह रोज़ अपने-आपसे पूछती रहती है, कि उसके अहं और अधिकार ने कैसे उसे आज्ञा दे दी है कि अपने ही घर में अपने को इतना नगण्य बनाकर रहे! क्यों नंदा उसकी इतनी बड़ी कमज़ोरी बन गई है, कि चाहे जैसे वह रहे, लेकिन रहे उसकी आँखों के सामने ही। हर्ष क्या है, दो-चार दिन और है… हमेशा एक आशंका से उसका दिल धड़कता रहता है कि कहीं कोई पूछ न बैठे—गीता, तुम तो आचार के मामले में ऐसी सख़्त हो, तुम्हें तो सड़क चलती लड़कियों का हँसना-मुस्कराना तक पसंद नहीं है। टीचरों, लड़कियों के फ़ैशन को रोकने के लिए तुमने तो जाने कितने नियम बना दिए हैं। और तुम्हीं यह सब… कोई देखे तो क्या कहे?… यह सवाल उससे किसी ने नहीं किया, एक दिन नंदा के अंडरवियर का पिछला हुक लगाते समय ख़ुद उसने ही कहा था, “नंदा, तेरे लिए, देख, मुझे कितना झुकना पड़ा है। इसीलिए मैंने घर पर किसी को भी बुलाना बंद कर दिया है।”

उलटकर नंदा उसके गले में झूल गई, “दीदी, यू आर लार्जहार्टेड!”

गीता की आँखों में आँसू भर आए, “हाँ, यों ही शब्दों में बहकाती रहो, गाँठ से तो कुछ जाता नहीं है!”

वह रूठ गई… हर्ष और नंदा को साथ देखकर उसे एक गुदगुदाता संतोष होता है। वह हर्ष या नंदा, दोनों में से या तो किसी एक के साथ तादात्म्य कर देती है या ऊँचाई पर खड़ी होकर इन ‘बच्चों’ के खेल पर ख़ुश होती है। लेकिन बाद में अक्सर उस पर एक टूटापन छाया रहता है। नंदा का यों गुनगुनाते हुए नृत्य की तालों पर घर-भर में घूमना, उसकी रग-रग से छलकती मुग्ध तृप्ति की वारुणी, उसका यों सपनों में डूबे हुए हमेशा खोए-खोए ढंग से मुस्कराना… सब कुछ अपने लिए बड़ा अपमानजनक और असमर्थता का ज्वलंत प्रमाण-पत्र लगता है! मन पर एक भीगे कम्बल जैसा बोझ लिपटता चला जाता है और अकेले फ़ालतू होने की चिरंतन भावना फिर आत्मा पर छाने लगती है! वह ठोस अंधेरे जैसा डिप्रेशन, जो नंदा के आने से पहले उसका रात-दिन का साथी था और उसे आत्महत्या के लिए उकसाया करता था और जिसे अपने भीतर महसूस करके उसकी समझ में ही नहीं आता था कि अपने इस शरीर और जीवन का क्या करे? क्यों करे? तब केवल रोना आता था और घुटन बढ़ती चली जाती थी। इन दिनों भी उसे वही सब अनुभूति फिर होने लगी है, और लगता है ऐसे अतीत और भविष्य की दो काली-काली दीवारें हैं, जो एक-दूसरी के पास आती-जाती हैं और उसे बीच में लेकर भींचने लगती हैं और इन ठोस दीवारों के पास उसे कुछ नहीं दीखता!

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राजेन्द्र यादव
राजेन्द्र यादव (जन्म: 28 अगस्त 1929 आगरा – मृत्यु: 28 अक्टूबर 2013 दिल्ली) हिन्दी के सुपरिचित लेखक, कहानीकार, उपन्यासकार व आलोचक होने के साथ-साथ हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय संपादक भी थे। नयी कहानी के नाम से हिन्दी साहित्य में उन्होंने एक नयी विधा का सूत्रपात किया।