‘Qisse Se Bahar Hone Ka Dukh’, Hindi Kavita by Prabhat Milind

जो कभी व्यक्त नहीं हो पाया
दुःख से बड़ा दुःख, यही दुःख था

अब तलक दिखने से जो बची रही थीं,
वे तमाम चीज़ें बरसात में धुली पत्तियों की तरह
कितनी ज़हीन और सब्ज़ नज़र आने लगी थीं

यह भी तो एक दुःख ही था…

अकेलेपन का यह नीमरोशन अंधेरा
कितना भव्य और दूधिया दुःख था!

कैसा पार्थिव, कैसा पवित्र, कैसा नम दुःख!!

रोज़-रोज़ कितना कुछ कहना चाहता था मन
रोज़-रोज़ किस तरह रोकती रही यह ज़िन्दगी!

और, यह दुःख तो हमेशा से अनकहा ही रहा…
कि बाहर का शोर मन में आकर
कब और कैसे ठहर गया था

वह क्या था ज़ेहन में फँसा हुआ सा
जो एक ऐंठन की तरह उमड़ता-घुमड़ता
और मथता रहता था लगातार!

साँसों के ज़िंदा बचे होने की
शर्त भी एक बेज़ुबान दुःख थी…

और, अदाकारी को दुनियादार होने के
इकलौता सबूत होने के दुःख का क्या करता!

कुछ स्मृतियों के दुःख थे
फीकी पड़ती गन्धों के
कुछ पुराने इंद्रधनुष सरीखे…

कुछ दुःख दृश्यों में थे
जिनमें रेत पर औंधी पड़ी एक नाव थी
और अरसे से बुझे हुए लैंपपोस्ट की लम्बी क़तारें

ख़तों के अपने दुःख थे…
प्रेम पर लिपटे हुए ख़ुशबुओं के हर्फ़
सफ़ेद चादर की तरह तो पूरे पड़ते थे,
लेकिन सच को छुपा पाने के लिए
अब कितने छोटे पड़ने लगे थे!

घृणा का स्वांग प्रेम की सबसे बड़ी विवशता थी…
व्यापार की विवशता, प्रेम में होने का स्वांग थी!

कितनी हैरतअंगेज़ बात थी
कि जिसकी लिखी हुई कविताएँ
प्रार्थनाओं की तरह पढ़ता रहा था,
अब उस स्त्री को भूल जाने की
एक तवील कशमकश से
होकर गुज़रना था मुझको!

दूभर था इस नशे के बिना जीना!
यह एक अफ़ीम दुःख था!!

यह भी पढ़ें:

उसामा हमीद की कहानी ‘कहानी के बाहर एक अजनबी’
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सांत्वना श्रीकांत की ‘दुःख के दिन की कविता’

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प्रभात मिलिंद
दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ाई, हिंदी की सभी शीर्ष पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानी, आलेख और समीक्षाएँ प्रकाशित. ईमेल- [email protected]

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