Poems: Shariq Kaifi
बीच भँवर से लौट आऊँगा
पागल समझा है क्या मुझ को
डूब मरूँ मैं
और सब इस मन्ज़र से अपना दिल बहलाएँ
बच्चों को काँधों पर लेकर
उचक उचक कर मुझ को देखें
हँसी उड़ाएँ
लाख मिरी अपनी वज्हें हों जाँ देने की
लेकिन फिर भी
दिल में मेरे भी है वो बेमानी ख़्वाहिश
जाते जाते सब की आँखें नम करने की
मेरी समझ से
इतना हक़ तो है
जाँ देने वाले का दुनिया वालों पर
शिर्कत कर लें
वो इस पल में थोड़ा सा सन्जीदा होकर
जाँ देने आया हूँ लेकिन
ये बतला दूँ
जान लड़ा दूँगा जान बचाने में गर
एक तमाशा देखने वाले को भी हँसता देखा खुद पर
लौट आऊँगा
कह देता हूँ
ऐसा कुछ भी अगर हुआ तो
बीच भँवर से लौट आऊँगा!
कुतिया
(ख़ालिद जावेद के नाम)
मगर बिल्ली को रोना चाहिए था
मुझे हुश्यिार कर के ही उसे उस रात सोना चाहिए था
कि वो घर में है
वो
यानी मिरी मौत
उसे कुछ भी नहीं करना पड़ा
मुझे तो सिर्फ़ लम्हा भर की उस शर्मिंदगी ने मार डाला
वो मेरे हाल पर मुँह फाड़कर जब हँस रही थी
कि जब वो सामने आई
मिरी आँखों में ख़्वाबों की चमक थी
हथैली पर दवा की गोलियाँ थीं जिन को बदला था सवेरे डॉक्टर ने
और मैं निहायत मुतमइन था कल को लेकर
ये मन्ज़र यूँ नहीं कुछ और होना चाहिए था
और बहुत मुम्किन है, होता भी
अगर मुझ को ज़रा आगाह कर देती वो कुतिया
वो मिरी बिल्ली
मोहब्बत की इन्तिहा पर
पापा
तुम मर जाओ न पापा
मैं तुम से नफ़रत करता हूँ
कश तुम लेते हो खाँसी मुझ को आती है
दिल के दौरे तुम्हें नहीं
मुझ को पड़ते हैं
आख़िर कब तक
रात में उठकर
लाइट जलाकर
देखूगा मैं साँस तुम्हारी
कब तक मेरी टीचर
मुझको टोकेगी
गुमसुम रहने पर
कैसे बतलाऊँ
मैं कितना डर जाता हूँ
जब जब मेरी रिक्शा मुड़ती है
घर वाले रस्ते पर
आज भी कम बेचैन नहीं मैं
मोड़ वो बस आने वाला है
चैन पड़ गया
आज भी मेरे घर के आगे भीड़ नहीं है
यानी
आज भी शायद सब कुछ ठीक है घर में
यानी तुम ज़िन्दा हो पापा
उम्र महदूद है
एक सिग्रेट नहीं जेब में
लेट होने का मतलब
बुझाना है अब बीड़ियाँ माँगकर मुझ को अपनी तलब
फिर चली
दो कदम चल के फिर रुक गई मेरी छकड़ा सी ट्रेन
क्या हुआ? पूछता हूँ
क्रॉस है कोई कहता है मुझ से
और मैं
फिर से इक बार नीचे उतरकर
टहलने लगा
पटरियों के किनारे पड़े पत्थरों पर
बड़बड़ाता हुआ
यूँ तो जल्दी पहुँच के भी घर
काम कोई नहीं है
मगर इस से क्या?
उम्र तो मेरी महदूद है
और जब उम्र महदूद है
कोई कैसे घड़ी की तरफ़ देखना छोड़ दे!
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