Poems: Nutan Gupta
समय-बोध
अश्वारूढ़ होकर
चलने का तात्पर्य
यह कभी नहीं है
कि तुम्हें
ठोकर लग ही नहीं सकती,
वायु वेग से चलने वाले
अश्व भी कभी-कभी
धड़ाम हो जाते हैं।
अतिरेक
मैंने ऐसे बहुत से
वृक्ष देखे हैं
जो प्रकृति के विपरित
फलों से जितना लद रहे हैं,
उतने अधिक
गर्व से भरे रहे हैं।
उनका पत्थर खाना
निश्चित है,
और अपमान पर
बिलबिलाना भी!
समर्पण
मैं हारती
जाती हूँ हमेशा
और तुम
जीते जाते हो हर बार।
तो तुम मुझे
कमज़ोर मत समझ लेना
मैं तो बस
तुम्हें खोना नहीं चाहती।
स्वीकृति
अभी एक दिन
मेरा कक्ष बादलों से भर गया
मुझे बड़े दुलार से अपने अंक में समेटा
और
अंजुरी-भर बरखा चाहने वाली को
नहला दिया।
इन हंस ने
लंघन बहुत कर लिए,
अब मोती चुगता है!
उत्तरार्द्ध
हर बार
तुम्हारा
एक ही प्रश्न
“तुम कैसी हो?”
हर बार मेरा एक ही झूठ
“मैं अच्छी हूँ!”
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