तुम परेशान हो
कि गुलमोहर सूख रहे हैं
पेड़ कट रहे हैं
चिड़ियाँ मर रही हैं
और इस शहर में बसन्त टिकता नहीं…

इस्पात की धमनियों में
जब तक आदमी
अपने को लोहे में बदलता रहेगा,
मशीनों को अपना ख़ून सौंपता रहेगा,
और जब तक फेफड़ा उसका
धुएँ में घुलता रहेगा,
गुलमोहर की उम्र नहीं बढ़ेगी

औरत जब अपने बच्चों के साथ
कपड़ों में आग लगाती है,
आदमी जब गला घोंट लेता है अपना ही,
उस अँधेरे बग़ीचे में
तब कुल्हाड़ी चलती है सीने पर
दिलो-दिमाग़ पर…
पेड़ की छाल पर ही नहीं
और सिर्फ़ पेड़ ही नहीं कटते हैं

आदमी कटता है
औरत कटती है
और वक़्त नहीं कटता है!

यह भी पढ़ें: ‘मैं तुम्हारे पेट से आत्महत्या की तरकीबें सीखकर आया हूँ’

Recommended Book:

Previous articleगुल्लक में धूप
Next articleऐसे मैं मन बहलाता हूँ
राजेन्द्र उपाध्याय
जन्म : 20 जून, 1958, सैलाना, ज़िला रतलाम (म० प्र०) | शिक्षा : बी०ए०, एल०एल०बी०, एम०ए० (हिंदी साहित्य) | कृतियां : 'सिर्फ़ पेड़ ही नहीं कटते हैं' (कविता-संग्रह, 1983), 'ऐशट्रे' (कहानी-संग्रह, 1989), 'दिल्ली में रहकर भाड़ झोंकना' (व्यंग्य-संग्रह, 1990), 'खिड़की के टूटे हुए शीशे में' (कविता-संग्रह, 1991), ‘लोग जानते हैं' (कविता-संग्रह, 1997, पुरस्कृत), डॉ० प्रभाकर माचवे पर साहित्य अकादेमी से मोनोग्राफ, 2004, 'रचना का समय' (गद्य-संग्रह, 2005) समीक्षा आलोचना, 'मोबाइल पर ईश्वर' (कविता-संग्रह 2005), 'रूबरू' (साक्षात्कार-संग्रह, 2005), 'पानी के कई नाम हैं' (कविता-संग्रह, 2006), 'दस प्रतिनिधि कहानियों : रवीन्द्रनाथ ठाकुर' (कहानी-संग्रह, 2006) संपादन।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here