‘Stri Ka Nirman’, a poem by Manjula Bist
यदि बीती सदी की कोई एक हव्वा
मुझसे मिलने आ भी जाती तो
मुझे नहीं लगता कि
वह मुझसे बिल्कुल अलग होती!
हाँ,
यह ज़रूर होता कि
वह मेरे गैजेट्स को उलट-पुलट कर देखती
फिर विस्मित-सी इस दुनिया को
हरे-नीले रंग से… भूरे-स्लेटी धुएँ में बदलता पाती!
स्त्री को मिलती क़ानूनी व व्यवसायिक सदाशयता पर
पसरे काग़ज़ी सुकूँ को आँचल में समेटती
लेकिन जब
मेरी देह-आत्मा की परतों को उधेड़ने लगती तो
अपनी माँस की बू को पाकर मायूस हो जाती!
उसके लौट जाने के बाद
मैं उसकी फैली देह-गन्ध पर परफ़्यूम छिड़क देती
व भूलने की फिर एक बार कोशिश करती कि
किसी भी सदी ने स्त्री को ‘पैदा’ करने का साहस नहीं किया है
उनका सिर्फ़ बेहतरीन ‘निर्माण’ किया जाता रहा है…
किसी ईंट की तरह!!
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