दिन ढला
पक्षी लौट रहे अपने-अपने नीड़
सूर्य का रथ अस्ताचल की ओर,
वह नहीं आयी।
उसकी प्रतीक्षा में फिर फिर लौटा उसका नाम
कण्ठ शून्य में पुकार, निराशा में मौन हुआ जाता है।
धरा पर धीमे-धीमे उतरता है अन्धकार
मन्द चाप धरते पग थम जाते यकायक।
मार्ग के पेड़ पाषाण हो खड़े—
निर्जीव, निःश्वास पत्रों को देह पर धारे—अकम्प!
नहीं बोलता उन पर कोई खग। द्वार पर नहीं हवा का भी कोई चिह्न
ऊपर नीलाकाश निःशब्द!
हे श्याम गगन के सजग प्रहरियों!
तुम पुकार दो वह नाम एक अंतिम बार
जिसकी प्रतीक्षा में भले जिह्वा से स्वर छूटता है,
और छूटता है देह से प्राण;
पुकारने से उसके आ जाने की आस मगर फिर भी नहीं टूटती।
योगेन्द्र गौतम की कविता 'गिरना'