माँ बाप ने पैदा किया था
गूँगा!
परिवेश ने लंगड़ा बना दिया
चलती रही
निश्चित परिपाटी पर
बैसाखियों के सहारे
कितने पड़ाव आए!
आज जीवन के चढ़ाव पर
बैसाखियाँ चरमराती हैं
अधिक बोध से
अकुलाकर
विस्फुरित मन हुंकारता है—
बैसाखियों को तोड़ दूँ!!
दिल की आग से
आत्मा चटकती है
भावावेश का धुआँ
कण्ठ द्वार को चीरकर
उजली सफ़ेदी पर फैल जाता है।
आज रोम-रोम से
ध्वनि गूँजती है और
पोर-पोर से पाँव फूटते हैं
प्रचलित परिपाटी से हटकर
मैं भागती हूँ— सब ओर एक साथ
विद्रोहिणी बन चीख़ती हूँ
गूँजती है आवाज़ सब दिशाओं में—
मुझे अनन्त असीम दिगन्त चाहिए
छत का खुला आसमान नहीं
आसमान की खुली छत चाहिए!
मुझे अनन्त आसमान चाहिए!!