माँ बाप ने पैदा किया था
गूँगा!
परिवेश ने लंगड़ा बना दिया
चलती रही
निश्चित परिपाटी पर
बैसाखियों के सहारे
कितने पड़ाव आए!

आज जीवन के चढ़ाव पर
बैसाखियाँ चरमराती हैं
अधिक बोध से
अकुलाकर
विस्फुरित मन हुंकारता है—
बैसाखियों को तोड़ दूँ!!

दिल की आग से
आत्मा चटकती है
भावावेश का धुआँ
कण्ठ द्वार को चीरकर
उजली सफ़ेदी पर फैल जाता है।

आज रोम-रोम से
ध्वनि गूँजती है और
पोर-पोर से पाँव फूटते हैं
प्रचलित परिपाटी से हटकर
मैं भागती हूँ— सब ओर एक साथ
विद्रोहिणी बन चीख़ती हूँ
गूँजती है आवाज़ सब दिशाओं में—
मुझे अनन्त असीम दिगन्त चाहिए
छत का खुला आसमान नहीं
आसमान की खुली छत चाहिए!
मुझे अनन्त आसमान चाहिए!!

Book by Sushila Takbhore:

सुशीला टाकभौरे
जन्म: 4 मार्च, 1954, बानापुरा (सिवनी मालवा), जि. होशंगाबाद (म.प्र.)। शिक्षा: एम.ए. (हिन्दी साहित्य), एम.ए. (अम्बेडकर विचारधारा), बी.एड., पीएच.डी. (हिन्दी साहित्य)। प्रकाशित कृतियाँ: स्वाति बूँद और खारे मोती, यह तुम भी जानो, तुमने उसे कब पहचाना (काव्य संग्रह); हिन्दी साहित्य के इतिहास में नारी, भारतीय नारी: समाज और साहित्य के ऐतिहासिक सन्दर्भों में (विवरण); परिवर्तन जरूरी है (लेख संग्रह); टूटता वहम, अनुभूति के घेरे, संघर्ष (कहानी संग्रह); हमारे हिस्से का सूरज (कविता संग्रह); नंगा सत्य (नाटक); रंग और व्यंग्य (नाटक संग्रह); शिकंजे का दर्द (आत्मकथा); नीला आकाश, तुम्हें बदलना ही होगा (उपन्यास)।