‘Virasat’, a poem by Kajal Khatri

मैंने देखा है
अक्सर
अपनी दादी, चाची, बुआ, माँ
सभी को
दालों के डिब्बों में
तकिए के ग़िलाफ़ों में
साड़ी की तहों के बीच
रामायण के पन्नों के अन्दर
रुपये बचाकर रखते हुए
जो काम आ सकें
किसी आपात स्थिति के समय या
कोई नया गहना गढ़वाने के
लिए,
पीहर के सुनार से

अपनी विदाई में
पीहर से मिली विदाई में
उसे भी शामिल करके दिखाते हुए

किन्तु मैं दिखना चाहती हूँ
अपने प्रेमपत्रों को सहेजते हुए
अपनी डायरी के भीतर
अपनी हर मनपसन्द किताब के पन्नों के बीच
अपने पसन्दीदा गीतों की
सीडियों के पीछे
अपनी आँखों के अन्दर
मेरे हृदय के सबसे गहरे तल में
उस आपातकाल के लिए
जब-जब मैं ख़ुद को तन्हा
महसूस करूँ
अकेली-सी लगूँ
और इन्हें ढूँढूँ
खोलूँ
पढ़ूँ, ख़ुश हो जाऊँ

मेरी बेटी ये सब देखते
जानते
बड़ी हो,
जाने प्रेम सहेजना
प्रेम में जीना
प्रेम में होना

हर आपातकाल को प्रेम से हल करना
बस यही विरासत में छोड़ना चाहती हूँ मैं

प्रेम में मरना नहीं, नहीं
जीना चाहती हूँ मैं!

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जब प्रेम हद से ज्यादा बढ़ जाता है भीतर तो उंगलियों से बाहर आता है कविता बनकर,प्रेम और कविता दोनों मेरा पहला प्यार है

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