लम्बी फ़ुर्सत की तलाश में
नया कहने, सुनने, गुनने की कैफ़ियत
जाती रहती है
ज़ुबान बंजर होती जाती है, साँस सँकरी
वक़्त की अदृश्य रस्सियाँ
पैरों को जकड़ती हुई
धीरे-धीरे गर्दन तक आ चुकी होती हैं
और इत्मीनान के सारे मौसमी झरने
घर-बाहर पसीना निचोड़ने में सूख जाते हैं
मैं जिस ज़ुबान में सपने देखता हूँ
उस ज़ुबान में चावल नहीं पकते
और जबकि भूख मेरे ज़िंदा होने का
एक अहम सुराग है,
मैं उपवास से डरता हूँ
अपने पसंदीदा शायर की मौत के ग़म में भी
मैं भूखा नहीं रह सका था
हाँ मगर चुपचाप आधी रात एक कविता को
उसके नाम करके सो गया था
अरसे बाद उसी रात
मैंने अपनी ज़ुबान में देखे थे
खुलती रस्सियों के सपने।
राग रंजन की कविता 'मैं जहाँ कहीं से लौटा'